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खिड़की के उस पार

    -राम नगीना मौर्य
     जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    मेरे हाथ में एक किताब है, लेकिन पढ़ने का मन नहीं कर रहा। इसे बस, उलटते-पलटते-देखते सामने की टेबल पर रख दे रहा हूँ। थोड़ी ऊबन सी भी महसूस हो रही है। अभी संध्या, लगभग पांच-साढ़े पांच बजे का समय है। मानसून का समय है, लेकिन आसमान में बरसने वाले नहीं बल्कि गरजने वाले बादल उमड़-घुमड़ से छाये दिखायी दे रहे हैं। फ्लैट की दूसरी मंजिल की खिड़की से सामने दिख रहे नजारे अत्यन्त मनोहारी हैं।

           बार-बार मेरी निगाह, सामने बने पार्क में चली जा रही है। आसपास के कुछ फ्लैट्स में बत्तियां जलना शुरू हो गयी हैं। पार्क के अन्दर बने सायकिल-ट्रैक पर कुछ बच्चे, बिना कोई शोर-शरातत किये, चुपचाप  अपनी-अपनी साइकिलों पर गोल-गोल चक्कर लगा रहे हैं। एक गर्भवती महिला, कान में इयरफोन खोंसे, कुछ सुनते, प्रसन्न मुद्रा में उन्हीं के पीछे धीमें-धीमें टहल रही है। टहलते-टहलते वो कभी-कभी अपने पेट पर भी हाथ फेर लेती है। शायद आने वाले बच्चे की आहट सुनने का प्रयास कर रही है। क्या पता, दृश्यों को देखकर घटनाओं के बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाने की इंसानी फितरत के कारण भी ऐसा हो…? एक थुल-थुली काया वाली महिला पार्क में बने वाकिंग-ट्रैक पर तेज कदमों चल रही है। एक लगभग सात-आठ साल का बच्चा झाड़ियों की ओट में खड़ा होकर फ्लैट की दीवाल पर सू-सू करते विभिन्न आकृतियां बनाने में मगन है।

          मेरे बगल वाले बरामदे में लगभग दस से तेरह साल के बीच की उम्र के दो बच्चे, अपने सामने ताश की गड्डियां बिखेरे, ताश से जादू का करतब दिखाने वाला खेल खेलने में व्यस्त हैं। यहां ड्राइंग-रूम में सामने वाले सोफे पर मेरे भानजे, पड़ोस में रहने वाले अपने दोस्त संग शतरंज खेलने में मगन हैं। इन्हें तो यह भी नहीं मालूम होगा कि उनका मामा एक कहानीकार है। मैं तो इन्हें ढ़ेर सारी कहानियां सुनाना चाहता था, पर शायद इन बच्चों को मेरी कहानियों में कोई रूचि नहीं, तभी तो इन्हें अपने मामा संग बोलने-बतियाने, घुलने-मिलने में भी कोई दिलचस्पी नहीं है।

                पार्क के सामने ही ताड़ के पेड़ों की लम्बी होती परछाइयां, फ्लैट्स की दीवारों पर अजग-गजब मनोहारी आकृतियां बना रही हैं। वाबजूद चहुंओर फैली हरियाली के, पार्क में कोई छायादार पेड़ नहीं दिख रहा है। पार्क में बायें किनारे टूटा हुआ एक झूला जरूर लटकता दिख रहा है। कुछ मकानों की छतों पर रखे पानी की टंकियों, जिनके ढ़क्कन खुले रह गये हैं, बन्दरों का एक दल उनमें मुंह डाल-डालकर पानी पीने का प्रयास कर रहा है। अधेड़ उम्र के कुछ लोग अपने मकान के आगे बने लान में चटाइयां बिछा रहे हैं। शायद योगाभ्यास-व्यायाम आदि करने जा रहे हैं। आसमान में चिड़ियों का झुण्ड अंग्रेजी के ‘वी’ आकार में उड़ता, शायद अपने आशियाने की ओर बढ़ रहा है।

           दो मजदूर रस्सियों के सहारे लटकते, सामने वाले फ्लैट्स की बाहरी दीवार की पुताई करने में लगे हैं। वहीं बिल्डिंग के नीचे कुछ बच्चे धूल में सने, गेंदतड़ी खेलने में व्यस्त हैं। ताड़ के पेड़ की ओट लगाए दो युवा, आसपास की दुनिया से बेखबर अपने-अपने स्मार्टफोन में आंखें धंसाए, शायद कोई गेम खेलने में मशगूल हैं। पुरवाई मंद मंद बह रही है। सचमुच मनोहारी दृश्य है।

           अमूमन फ्लैट्स में यह सुविधा रहती है कि अगर सच्चे मन से कोशिश की जाय तो अगल-बगल की बालकनियों में बतियाते लोगों की खुसर-फुसर आसानी से सुनी जा सकती हैं, और अगर ऐसी बातें परनिन्दा रस में रसपगी हैं तो उन्हें सुनने का आनन्द ही कुछ और है। बगल की बालकनी में नौकरानी और मकान मालकिन के बीच की बकबक-चखचख और खरी-खोटी बातें, शायद सब्जी बनाने वाली कड़ाही की जली हुई चीकट तली को छुड़ाने में नौकरानी द्वारा किये जा रहे अतिरिक्त परीश्रम के कारण उपजी लग रही हैं।

           मेरे बगल वाले मकान के लान में जीन्स-टाप पहने निहायत ही खूबसूरत एक बाइस-तेइस साल की लड़की, एक पन्द्रह-सोलह साल के लडके संग बैडमिण्टन खेलने में व्यस्त है। ये दोनों मंझे हुए खिलाड़ी लग रहे हैं। काश, इनके बारे में कुछ जान पाता? कुछ बोल- बतिया पाता। नहीं कुछ तो इनके नाम ही जान पाता। इन्हें खेल के कुछ दांव-पेंच सिखा पाता। स्मैश, पुश-शाट्स, नेट-शाट्स, रैली, सर्विस, फ्लिक, हाफकोर्ट-शाट्स आदि की कुछ बेहद जरूरी बारीकियां, इनकी खूबियां-खामियां इन्हें बता पाता या इनके खेल में सुधार के लिए लगे हाथ इन्हें बैडमिण्टन के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के कुछ वीडियो आदि ही देखने का सुझाव दे देता। आखिर, युवावस्था में मैं बैडमिण्टन का बेहतरीन खिलाड़ी जो रहा हूँ। सम्भव होता तो खेलों की उठा-पटक भरी राजनीति के बारे में भी इनकी जानकारी के बारे में कुछ पूछता। यकीनन ये बातें मेरे जेहन में, इनका खेल देखकर अति-उत्साहवश ही उठ रहे हैं। वास्तविकता से इसका कुछ भी लेना-देना नहीं। ऐसा सम्भव भी नहीं।

           बताता चलूं…अजनबियों से बातचीत की शुरूआत करने में पहले मैं बहुत झिझकता था, लेकिन जबसे इल्मे-अदब की दुनिया में आया, ऐसे-ऐसे अनुभवों से दो-चार होना पड़ा, ज्ञान में कुछ इस कदर इजाफा हुआ कि झिझक तो बीते दिनों की बात हो गयी। अमूमन, थोड़ी देर की बातचीत में ही सामने वाले की कथनी और करनी की कलई खुल जाती है। ऐसा लगता है कि न मिले होते, तो ही ठीक था। जनाब के बारे में कम-अज-कम गलतफहमी तो बनी रहती। है न कितनी अजीब बात…?

          बहरहाल…ये दोनों बहुत बेहतर खेल रहे हैं। क्या पता…इन्हें मेरे ऐसे किन्हीं सुझावों की जरूरत ही न हो? आज की तारीख में मेरे वर्षों पुराने टिप्स पुराने पड़ गये हों। वैसे भी समय के साथ लगभग हर खेलों में तकनीक और फिटनेस के स्तर पर ढ़ेरों बदलाव आये हैं। फिर, कोई सर्व-गुण-सम्पन्न होने का दावा भी कैसे कर सकता है? कहीं-न-कहीं तो हम सभी अधूरे ही हैं। मैं भी क्या वाहियात बातें सोच रहा हूँ? देखा जाय तो…खालीपन कितना बोरियत और बकवास होता है न? बहरहाल…थोड़ी देर तक मंत्रमुग्ध मैं उनका खेल देखता रहा।

           इसी मध्य सामने वाले फ्लैट्स के पीछे से कुछ लोग, अपने कण्धों पर चादरों में लिपटे बड़े-छोटे आकार के कट-आउट्स आदि लेकर आते दिखायी दिये। कुछ कट-आउट्स की चादरें हट जाने से साफ दिख रहा था कि उनके कण्धों पर रखे कट-आउट्स फायबर के बने हैं, अन्यथा इतने बड़े-बड़े आदमकद कट-आउट्स भला वे अकेले कैसे अपने कण्धों पर उठा सकते हैं? कुछ कट-आउट्स पेड़-पौधों और जानवरों के भी हैं।

           अब उन्होंने उन कट-आउट्स को पार्क के बीचों-बीच बने चबूतरे पर रखते, उनकी चादरें हटाते, उन पर झालर, स्टीकर, लाइट्स आदि लगाने, उन्हें सजाने-धजाने में व्यस्त हो गये हैं। एक व्यक्ति रिक्शे पर दो बड़े-बड़े स्पीकर्स, माइक और लकड़ी का एक बाक्स लादे वहां पहुंच गया है। चबूतरे के पीछे, ताड़ के दो पेड़ों के बीच एक बैनर खींचकर बांध दिया गया है। नजर कमजोर होने के कारण या शायद दूरी ज्यादा होने के कारण उस पर लिखी इबारतें यहां से साफ-साफ पढ़ने में नहीं आ रहीं हैं।

           कालोनी की कुछ औरतें भी धीमें-धीमें पार्क में उस चबूतरे के सामने जुटने लगी हैं। म्यूजिक-सिस्टम चालू हो गया है, जिस पर डी.जे. और फिल्मी धुनों पर आधारित गीत-संगीत आदि जैसे मिले-जुले से शोरनुमा स्वर उभरने लगे हैं, लेकिन अभी माइक-टेस्टिंग का दौर चल रहा है, जिससे म्यूजिक-सिस्टम से निकलती आवाजें, यहां तक साफ-साफ सुनायी नहीं दे रही हैं। दरी-चादरें व कुछ अन्य वाद्ययन्त्र आदि लेकर एक ऑटो-रिक्शा वाला भी अभी-अभी नमूदार हुआ है।

           यद्यपि चुनावी मौसम है, लेकिन यह सब देख सहज अन्दाजा लगाना मुश्किल है कि यहां किस तरह का कार्यक्रम आयोजित होने वाला है?

           अरे हां! बताता चलूं, कुछ जरूरी कार्यवश दो दिन पहले यहां मेट्रोपोलिस पार्क कालोनी स्थित अपने बहन के घर आया था। मेरा काम हो गया है। अब वापस अपने गांव जाना है।

           किचन से बरतनों की खड़र-बड़र आवाजें आ रही हैं। बहन, इस समय बरतन मांजती महरिन के साथ किचन में मौजूद है। शायद हम सभी के लिए चाय बनाने की तैयारी में जुटी है, उसके बाद रात का खाना तैयार करने और रास्ते के लिए, मेरे लिए टिफिन तैयार करने में मशगूल हो जायेगी।

            मेरी ट्रेन के छूटने का टाइम रात के साढ़े दस बजे का है। इस बीच मुझे भोजन करके, रास्ते में ट्रैफिक जाम आदि के मद्देनजर लगभग नौ बजे ही यहां से निकलना होगा। खिड़की के सामने जो दृश्य दिख रहा है, उसे इत्मिनान से बैठकर देखने के लिए चाय की बेतरह तलब महसूस हो रही है। बहन से कहता हूँ।

            चाय का प्याला लेकर मैं फिर खिड़की के पास आ गया हूँ। अब-तक सामने वाले पार्क में काफी तादात में लोग जुट गये हैं। अभी-अभी स्टेज के ठीक सामने श्वेत वस्त्रों में चार घोड़ों से जुती बग्घी में सवार एक बाबानुमा सज्जन वहां पधारे हैं।

           सिर पर चमचमाती पगड़ी, सफेद धोती-कुर्ता पहने वो बाबानुमा सज्जन अब स्टेज पर बने बड़े से सिंहासन पर विराज चुके हैं। कुछ लोगों ने माइक संभाला। अब बाबाजी का भाषण या शायद प्रवचन शुरू हो गया है। बोलते-बोलते वे बीच-बीच में अपना सिंहासन छोड़ते, स्टेज पर नृत्य करते, गले में पड़े फूलों की माला में से कुछ फूल निकालते श्रोताओं की तरफ भी उछाल दे रहे हैं। माइक-सिस्टम इतना खराब है कि आवाज यहां तक घरघराती हुई सी आ रही है। जिससे साफ-साफ कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा। विभिन्न वाद्ययन्त्रों से उठती कर्कश स्वरलहरियां भी बाधा पहुंचा रही थीं। हां! पर स्टेज पर क्या कुछ हो रहा है, उसे साफ-साफ देखा जा सकता है। भाषण या शायद प्रवचन के बीच में ही थोड़ी-थोड़ी देर पर कुछ अधेड़ पुरूष और औरतें चढ़ावे के रूप में कदाचित रूपये और पुष्प आदि उन बाबानुमा सज्जन के चरणों में रखते, वापस आकर अपनी जगह पर बैठ जा रहे हैं। कुछ लोगों के हाथ में रंग-बिरंगी पन्नियों वाली पताकाएं हैं, तो कुछ लोग स्टेज के अगल-बगल स्टाल्स लगाएढाए कुछ बेचते भी दिखाई दे रहे हैं। इन स्टाल्स के इर्द-गिर्द लोगों की अच्छी-खासी भींड़ जमा है। हां! कुछ छोटे-छोटे बच्चों की धमाचैकड़ी करती मंडली भी बीच-बीच में दिख जा रही है।

           मैं बहन के इस फ्लैट में सुबह ही आ गया था। पूरे दिन एक कमरे में पड़ा-पड़ा, कभी अखबार तो कभी साथ लायी किताब पढ़ता रहा। अगल-बगल के मकानों में अजीब नीरव शान्ति सी बनी हुई थी। मन अजीब तरह की उलझन में था, बल्कि उद्विग्न महसूस कर रहा था। लेकिन शाम होते ही यहां सामने के पार्क में लोगों की इतनी भींड़, अजब-गजब मंजर देखते मेरा माथा चकराने लगा था।

            ‘‘भइया खिड़की बन्द कर दीजिए। बहुत डिस्टर्बेन्स हो रहा है। बच्चे अपना होम-वर्क कर रहे हैं। यहां पार्क में अक्सर कुछ-न-कुछ कार्यक्रम होते ही रहते हैं। पता नहीं यह कार्यक्रम कितनी देर तक चलेगा?’’ अन्दर किचन से बहन ने आवाज दी। बाहर सचमुच बहुत शोर-सा हो रहा था। मैंने खिड़की बन्द कर दी और हाथ में ली किताब के पन्ने अनमने ढ़ंग से उलटते-पलटते, पढ़ने की कोशिश करने लगा।

            ‘‘टन्न-टन्न-टन्न…’’ सामने की दीवाल से लगी घड़ी के अलाॅर्म ने मेरी तन्द्रा भंग की थी। नौ बज रहे हैं। अब रेलवे-स्टेशन जाने के लिए टाइम हो रहा है। मैंने भोजन करते अपना सामान वगैरह पैक कर लिया है। स्टेशन पहुंचने में एकाध घण्टे तो लगेंगे ही। अब मुझे निकलना चाहिए। सामने के टेबल पर भानजों को होमवर्क करते देख खयाल आया कि चलते समय सौ-पचास रूपये उनके हाथ पर रख देता हूँ। यही सोच मेरे हाथ अपनी जेब में चले गये। लेकिन…आज के जमाने में व्यवहार में पांच सौ रूपये से कम दीजिए तो बात कुछ जंचती नहीं? परन्तु पांच सौ रूपये तो मेरे लिए खासी भारी रकम है। अगले ही पल यह खयाल भी आया…‘आखिर ये बच्चे, जो अभी अपने स्मार्टफोन पर कोई गेम खेलने में व्यस्त है, पांच सौ रूपये लेकर करेंगे भी क्या? ऐं-वे-ही…बहन से जिद कर, शायद टाफी-वाफी या पिज्जा-बर्गर आदि मंगा कर खा लेंगे। आज सुबह यह भी गौर किया था कि यहां आते वक्त मैंने अंगूर के एक-एक गुच्छे, एक-एक संतरे, जिन्हें फलवाले के ठेले से छांट-छांट कर खरीदे थे, इन बच्चों ने तो उन्हें चखा ही नहीं। फिर, पिताजी भी तो कहते हैं…‘दीजिए उन्हें, जिन्हें जरूरत हो या जो उनकी कीमत समझें।’ मैं भी इस तरह खामखाह पैसे बरबाद करने या किसी तरह की औपचारिकता के पक्ष में कभी नहीं रहा। ये पैसे मेरे लिए रास्ते में टैम्पो के किराये, चाय-नाश्ते के काम आ जायेंगे। आखिर…बाइस-तेइस घण्टे के सफर में भूख तो लगेगी ही। टिफिन में रखे भोजन से काम भी तो नहीं चलेगा। नहीं कुछ तो…इतने रूपये में तो मैं दो-तीन किताबें ही खरीद लूंगा। मन-ही-मन, काफी समय से खरीदे जाने हेतु किताबों की टल रही सूची, मेरे स्मृति-पटल पर कौंध गयी। जेब में पड़े ये थोड़े से रूपये मेरे लिए बहुत उपयोगी हैं। यही सोचते…मेरे हाथ छूंछे ही जेब से बाहर आ गये।

           ‘‘डिंग-डांग…?’’ डोरबेल बजी थी।

           ‘‘कौन…? भइया जरा देखिये तो…दरवाजे पर कौन है। मैं टिफिन धो रही हूँ। मेरे हाथ में साबुन लगा हुआ है?’’ ये कहते, किचन से बहन ने मुझे दरवाजा खोलने की हिदायत दी। मैंने आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया।

           ‘‘अंकुल्ल! आपकी बालकनी में हमारी शटल-काक आ गिरी है। प्लीज, उठा दीजिए।’’ अद्भुत! मेरी आंखों के बिलकुल सामने वही लड़की, जो नीचे लान में बैडमिण्टन खेलते दिखी थी, दरवाजे पर खड़ी थी। मैंने प्रकृतिस्थ होने की कोशिश की।

           ‘‘हां-हां! नैन्सी, अन्दर आ जाओ। बालकनी में जाकर तुम्हीं ले लो।’’ बहन ने उसे किचन से ही आवाज दी। मैं यन्त्रवत दरवाजा छोड़कर एक तरफ किनारे खड़ा हो गया। ओह! तो इस लड़की का नाम नैन्सी है। मैंने मन-ही-मन दुहराया होगा। नैन्सी ने बालकनी में जाकर शटल-काक उठाया और वापसी में मुझे ‘बाय अंकुल्ल!…’ कहते तेजी से सीढ़ियां उतरने लगी।

           अब मैने भी अपने भानजों को बाय-बाय करते, बहन से विदा ली और कण्धे पर अपना बैग टांगे, सधे लेकिन भारी कदमों सीढ़ियां उतरने लगा। मैंने गौर किया कि घर का कोई सदस्य बाहर निकलकर बाय-बाय करने, नीचे सीढ़ियों तक छोड़ने भी नहीं आया। मानो…फुरसत पाये हों, झंझट से?…‘जो साज से निकली है वो धुन सबने सुनी है, जो साज पे गुजरी है, ये किसको पता है…’ ग्राउण्ड-फ्लोर वाले मकान से ट्रांजिस्टर पर ये गीत बजता सुनाई दिया था।

            …………

           ‘‘बाबू जी, हमारी मजदूरी?’’

           ‘‘हां! जरूर। पर जरा कार्यक्रम तो खत्म हो जाने दो। अभी तो कार्यक्रम खत्म होने के बाद, तुम लोगों को ये सगरो साज-सामान, तामझाम भी वापस गोदाम में ले जाकर रखना होगा?’’

            ‘‘बाबू जी! पिछली बार आपने हमारी मजदूरी काट ली थी। सिर्फ एक तरफ का ही हिसाब किया था, इसलिए अबकी बार हमने सोचा है कि जब तक आप हमें इन सब सामानों को गोदाम में वापस ले जाने का हमारा दोनों तरफ का किराया एडवान्स नहीं दे देते, हम लोग ये सारा सामान वापस नहीं ले जायेंगे।’’

           ‘‘अब्बे! तुम लोगों की मति तो नहीं मारी गयी? किसके सिखाने-पढ़ाने पर बोल रहे हो? तुम्हारे कण्धों पर रखकर बन्दूक चलाने वाले वो जो तुम्हारे संगठन वाले हैं न, जिनके बल पर बोल रहे हो? उन सबकी नब्ज मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ। अगर वार्षिक चन्दा न दूं, तो वो सभी सड़क पर नजर आयेंगे। और वो देखो! तुम्हारा नेता तो खुद, बाबा जी के सामने हाथ जोड़े पहली लाइन में ही बैठा है। तुम सभी को बेवकूफ बनाए रखता है।’’ कण्धे पर बैग टांगे सीढ़ियां उतरकर मैं जब नीचे आया तो एक मोटे तुंदियल आदमी को इकहरे बदन के दो-तीन मजदूरों से यूं बतियाते सुना। उस मोटे तुंदियल की ये बातें सुनकर वे मजदूर निराश होकर वहीं बैठ गये और खैनी मलते, शायद कार्यक्रम खत्म होने का इन्तजार करने लगे। जाहिर है…मैं भी उन्हें उनके हाल पर छोड़ते आगे बढ़ गया।

           रेलवे-स्टेशन जाने वास्ते, टैम्पो पर सवार होते बरबस ही मेरी निगाह सामने पार्क में स्टेज की तरफ पर चली गयी। स्टेज पर इस समय वो बाबानुमा सज्जन डी.जे. की धुन पर अन्य श्रद्वालुओं संग डान्स करने में मशगूल थे।

           ‘‘तनिक इस प्वाइंट पर भी कछू…परकास डालैं परभू…हें-हें-हें?’’ मैंने गौर किया कि टैम्पो वाला रास्ते-भर अपने मोबायल पर किसी से आराम से बतियाते, बीच-बीच में ये जुमला दुहराते ऐसे हंस देता, मानो ये उसका तकिया-कलाम हो। डर भी लग रहा था कि लम्बी बातचीत के चक्कर में कहीं ये मुझे समय पर स्टेशन पहुंचायेगा भी कि नहीं? खैर…थैंक्स गाड ! टैम्पो वाले ने मुझे रेलवे-स्टेशन तक सही समय से पहुंचा दिया था। उसे किराया चुकाकर मैं प्लेटफार्म पर आ गया।

          यात्रियों की चहल-कदमी, गहमा-गहमी से प्लेटफार्म पर अच्छी-खासी रौनक थी। मेरी ट्रेन प्लेटफार्म पर लगी हुई थी। अपने टिकट से बोगी नम्बर का मिलान कर मैं फौरन ही अपने डिब्बे में आकर, खिड़की के ठीक बगल वाली अपनी पसंदीदा सीट पर आकर बैठ गया। अभी दो-तीन मिनट ही हुए होंगे कि प्लेटफार्म पर वैशाखियों के सहारे चलते, मैले-कुचैले कपड़ों में एक लगभग बारह-तेरह साल का दुबला-पतला सा बच्चा, अपनी हथेलियां फैलाये मेरी सीट वाली खिड़की के समीप आकर खड़ा हुआ। उसकी हालत को देखते, उसकी मदद करने वास्ते मेरे हाथ खुद-ब-खुद अपनी जेब में चले गये।

          अब मेरी ट्रेन धीमें-धीमें प्लेटफार्म छोड़ने लगी थी। ट्रेन में बैठे-बैठे खिड़की के उस पार, प्लेटफार्म पर खड़े, अपनी गाड़ी के लिए प्रतीक्षारत मुसाफिर, वहां के दृश्य अब तेजी से पीछे छूटने लगे थे। ट्रेन में इत्मिनान से बैठते, आसपास के यात्रियों पर नजर गयी तो महसूस हुआ कि अन्य यात्रीगण भी अपनी-अपनी तरह से बैठने या सोने की तैयारी में लगे हैं। अब मैंने भी रास्ते में पढ़ने वास्ते, बैग से अपनी किताब निकाल ली थी।

    -राम नगीना मौर्य

    5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर

    लखनऊ – 226010, उत्तर प्रदेश