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जागेश्वर धाम

    यात्रा संस्मरण
     -रेखा बोरा
     जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    उत्तराखंड का पांचवां धाम- जागेश्वर धाम अल्मोड़ा से ३५ किलोमीटर तथा काठगोदाम से ११६ किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ के.. लगभग १४०० से २००० वर्ष प्राचीन मंदिर, प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर व बेजोड़ शिल्पकला का नमूना है। पतित पावन जटा गंगा के तट पर देवदार के घने जंगलों के बीच शांति व आलौकिक शक्ति का अहसास कराता  जागेश्वर धाम समुद्र तल से ६१३५ फुट की ऊंचाई पर स्थित है।

    भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार इन मंदिरों का निर्माण व पुनरुद्धार ७ वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी के मध्य कत्यूरी शासकों के द्वारा करवाया गया।जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वर और भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूण के नाम से जाना जाता है। जागेश्वर धाम की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है।

    जंगलों से घिरे ख़ूबसूरत नक्काशी वाले मंदिरों का निर्माण लकड़ी तथा सीमेंट की जगह पत्थर की बडी-बडी शिलाओं से किया गया है। दरवाजों की चौखटें देवी देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। मंदिरों के निर्माण में तांबे की चादरों और देवदार की लकड़ी का भी प्रयोग किया गया है।

    यहां लगभग २५० छोटे -बड़े मंदिरों का समूह है।  जिनमें से एक ही स्थान पर  २२४ मंदिर स्थित हैं। जिसमें से १०८ मंदिर भगवान शिव के व १७ अन्य देवी-देवताओं के मंदिर हैं जो भगवान शिव को समर्पित हैं। कुछ मंदिर खाली हैं। मृत्युंजय मंदिर, योगेश्वर मंदिर, दंडेश्वर मंदिर, बालेश्वर मंदिर, केदारेश्वर मंदिर, पुष्टि देवी मंदिर, लक्ष्मी देवी मंदिर, चंडी का मंदिर कालिका देवी मंदिर, नव दुर्गा या नंदा देवी मंदिर, लकुलीश मंदिर, सूर्य मंदिर, नवग्रह मंदिर, कुबेर मंदिर, पिरामिड मंदिर मुख्य हैं।

    जागेश्वर धाम का वर्णन स्कन्द-पुराण, शिव पुराण व लिंग पुराण में भी मिलता है। लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान विष्णु द्वारा स्थापित १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मान्यता है कि सबसे पहले भगवान शिव की लिंग रूप में पूजा की परंपरा जागेश्वर धाम से ही आरम्भ हुई थी। इसीलिए जागेश्वर धाम को ज्योर्तिलिंग भी कहा जाता है।

    पुराणों के अनुसार भगवान शिव तथा सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी। कहते हैं कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मनोकामनाएं उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहाँ दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएं पूर्ण नहीं होती, केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान द्वारा ही मंगलकारी मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती हैं।

     जागेश्वर को भगवान शिव की तपोस्थली भी माना जाता है. भगवान जागेश्वर के दर्शन करने मात्र से सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं। यहां पर भक्त पार्थिव पूजा, रुद्राभिषेक के साथ अन्य अनुष्ठान व पितृ इत्यादि की पूजा पाठ भी करा सकते। श्रावण मास में यहाँ पूरे माह श्रावणी मेला लगता है। जिसमें दूर-दूर से भक्तगण रुद्राभिषेक करने पहुँचते हैं।

    जागेश्वर धाम को अद्भुत शक्तियों और शिव साधना की वजह से रहस्यमयी जगह माना जाता है। पेड़ भी रहस्यों से भरे हैं। यहां बासठ मीटर ऊंचा पेड़ है। जो जड़ व तना से एक और ऊपर दो पेड़ों में विभाजित है।  कहते हैं इसमें भगवान शिव व माता पार्वती अर्द्धनारीश्वर रूप में  विराजमान हैं। इतना ही नहीं कई पेड़ यहां गणेश के रूप में नजर आते हैं. मंदिर परिसर में ही कमल कुंड है। जिसमें कमल के फूल तैरते हैं।

    समीप ही जटा गंगा बहती हैं।  यहां पर कुछ देर बैठने  से मन को एक अलग ही शांति महसूस होती है, जिसे शब्दों में वर्णन करना मुश्किल है। यहाँ प्रसाद के रूप में फल और पेड़ दिया जाता है। मान्यता है कि यहाँ महा मृत्युंजय मंदिर में शारीरिक कष्टों को दूर करने के लिए महामृत्युंजय जाप कराने से मृत्यु तुल्य कष्ट भी टल जाते हैं।

    जागेश्वर धाम पहुँचने के लिए नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर है। नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम है।  यहां लगभग सभी प्रमुख शहरों से ट्रेन आती-जाती हैं। काठगोदाम स्टेशन से बस और टैक्सी से  करीब चार से पांच‌ घंटे में जागेश्वर धाम तक पहुंच सकते हैं।

    जागेश्वर धाम के रूट पर आपको प्राकृतिक सौंदर्य देखने को मिलेगा। घुमावदार सड़कों से गुजरने पर देवदार के पेड़ और चाय के बागान नजर आते हैं। रास्ते में छोटी नदियाँ भी मिलेंगी और खाने-पीने से लेकर आराम करने की जगहें भी मिल जाएंगी। मंदिर के आस-पास रात्रि निवास के लिए उचित दर पर होटल भी मिल जाते हैं। जहाँ खाने पीने से लेकर ठहरने की व्यवस्था मिल जाएगी।

    मंदिर के बाहर कई दुकानें हैं, जहां से आप प्रसाद व पूजा की सामग्री खरीद सकते हैं। मंदिर के गेट तक दोपहिया व चौपहिया वाहन जाते हैं। पैदल भी मंदिर तक भी जा सकते हैं। मंदिर के समीप पहुँचते ही आपके कानों में मंत्रोच्चारण और घंटियों की ध्वनियाँ‌ गूंजने लगती हैं जो आपको आस्था के द्वार तक पहुँचने का आभास कराती है।

    -रेखा बोरा