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दंश

    रश्मि ‘लहर’

    लखनऊ

    जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    उनका मौसम

    नयनों में बदलता

    सपनों के चीत्कार से

    सहम जाता

    उनकी कल्पित मेंहदी का

    गाढ़ा-सुर्ख रंग

    जब-तब ऑंखों में उतर आता।

    वे प्रतीक्षारत ‘अनाथ’

    भयभीत रहते…

    मानवीय कंटकों से।

    जीवित इच्छाओं के

    जीव-जंतुओं से

    उनका शैशव

    अज्ञात चिंता से

    विलाप करता

    छटपटाता

    कजरी के गीतों पर

    तटस्थ रहता।

    मानसिक युद्ध के

    अनचाहे परिणाम

    बदल देते उनके

    एकाकी त्योहारों के अनुमान।

    उनके मस्तिष्क में चलता रहता

    चलचित्र

    अबोध बच्चों पर

    फटते आसमान का

    आग में झुलसे

    कीट-पतंग, बागान का

    क्षत-विक्षत मकान का।

    उनके स्तब्ध जीवन-क्रम में

    कहीं नहीं होते

    प्रेम-ममता से भरे उत्सव

    आतुर सावन

    फगुनाया तन-मन।

    उनकी मूक ऑंखें

    अक्सर पूछती मिलतीं

    सुनो!

    क्या तुम्हारे शहर में

    अभी भी सावन आता है?