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दूब का फूल

    सपना चन्द्रा
     जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    मेरे भीतर

    जो स्पंदित थी

    एकदिन उस साँस को

    बाहरी हवा क्या मिली बस

    हरी होकर दूब सी बढ़ने लगी

    जिसमें अदृश्य फूल खिलने लगी

    बेपरवाह सी

    कोमल सी नोंक पर

    शब की हथेली से

    टपकते हुए

    नन्हीं बूँदे उसकी नोंक पर

    जा बैठी

    दिन के उजाले से

    सारी रश्मियों को

    भरकर अपने भीतर

    समेटे हुए

    वह भूल गई

    कि उसे खो जाना है

    किसी ने मंत्रमुग्ध हो

    स्नेह की बौछार कर दी

    बूँदे जरा ठिठक सी गई

    पर इस….

    प्रेम में डूबकर

    इठलाना कौन न चाहे

    बूँदे इठलाती रही

    हवाएँ सहलाती रही

    जैसे-जैसे वक्त बढ़ता रहा

    बूँदे धीरे-धीरे अपना

    अस्तित्व खोने लगी

    प्रेम रुपी बूँद सूख चुकी थी

    तो दूब का मर जाना भी तय था

    और वह फूल जिसे किसी ने

    नहीं देखा

    उसका क्या मुरझाना

    और क्या खिलना…

    नीलाभ

    मन डुबना चाहता है पूर्णतः

    जब-जब नीले रंग में

    तब आकाश में फैला बादल

    अति प्रिय लगता है

    समंदर में उठते लहरों में

    नील घुला सा लगता है

    दूर उफ़ुक़ में नीली सी पट्टी

    तैरती हुई प्रतीत होती है

    इस नीलाभ की आभा भी

    कितना सुकून देती है

    तभी अचानक से नज़र पड़ती है

    मौन, अपने आप में लीन

    बैठे नीलाक्ष पर!

    गहन पीड़ा में तर चेहरा

    गरल की जलन

    मुखमंडल को मलिन करती हुई,

    निशा की वो पहर भी जब वह

    विदा लेती है सहर होने से पहले

    नीला सा मन धीरे-धीरे नीलाभ से

    नीलाक्ष होता चला जाता है

    सपना चन्द्रा

    कहलगांव भागलपुर बिहार

    9430451879