Skip to content

धर्मदक्षिणा


    ’कई बार जीवन के दोराहे पर आकर कुछ निर्णय ऐसे लेने पड़ते हैं जो भले ही बहुत मुश्किल से लिए जाए, पर आजीवन मन को एक संतोष प्रदान करते हैं। ‘’

    बात काफी पुरानी है। एम.ए. करने के सात आठ महीने बाद ही मुझे अपने ही कॉलेज में लेक्चरार की अस्थाई नौकरी मिल गई। प्रिंसिपल, टीचर्स व छात्र, सभी मेरे अध्यापन कार्य से संतुष्ट थे। फिर आठ नौ महीने बाद ही मेरे विभाग के एक प्रोफेसर की आकस्मिक मृत्यु हो गई और उसे रिक्त पद के लिए आवेदन मांगे गए। मैंने भी इसके लिए आवेदन फार्म व जरूरी कागजात जमा कर दिए।

    एक दिन जब मैं स्टाफ रूम में बैठी थी तो मुझे अपने पीछे बैठे एक प्रोफेसर की बात सुनाई दी,”लगता है वर्मा को अपने अंत का आभास हो गया था, तभी तो उसने भाभी जी (पत्नी) को जबरदस्ती अपने विषय में ही एम.ए. करवा दिया। अब देखो, उनकी जगह भाभी जी की पोस्टिंग हो पाती है या नहीं? हालांकि इस पद के लिए इतनी जल्दी और इस तरह की व्यवस्था की गई है कि ज्यादा लोग आवेदन कर ही ना सके। फिर भी कोई उनसे ज्यादा डिग्रियां या अनुभव लेकर आ गया तो उनकी पोस्टिंग में मुश्किल होगी।”

    उनकी बातें सुनकर मैं सोच में पड़ गई। यह वही वर्मा सर थे, जिनकी वजह से मुझे नौकरी मिली थी। शुरू में जिस टीचर के बोलने के सधे अंदाज को हम प्लेटफार्म पर अनाउंसमेंट वाली आवाज कह कर मजाक उड़ाते थे, बाद में वही हमारे आदरणीय गुरु बन गए थे। अपने विषय के पूरे ज्ञानी व हर पल, हर विद्यार्थी का मार्गदर्शन करने को तैयार गुरुजी की प्रेरणा से ही मैं कॉलेज में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए थे और मुझे नौकरी करने के लिए प्रेरित किया था।

    ऐसी बात सुनकर मैं तो अब दुविधा में पड़ गई। निश्चित रूप से आए हुए आवेदन पत्रों मे अपने कॉलेज में यह नौकरी मुझे ही मिलती, क्योंकि छठी क्लास से एम. ए. तक छात्रवृत्ति व सर्वोच्च अंकों के प्रमाण पत्रों के अलावा अध्यापन का अनुभव भी मेरे पास था।

    एक तरफ अपने ही शहर में नौकरी का लालच, तो दूसरी तरफ वर्मा सर का परिवार मेरी नजरों में छाया था। उनके परिवार पर तो विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा होगा, इसका अंदाजा मुझे था। चार छोटे बच्चों की जिम्मेदारी के साथ उनकी पत्नी की नौकरी इसी शहर में ज्यादा जरूरी थी।

    एक तरफ स्वार्थ था, तो दूसरी तरफ नैतिकता का तकाजा। माता-पिता ने भी अंतिम निर्णय मेरे ऊपर छोड़ दिया था। मैं कई दिनों तक उलझन में रही, पर अगले दिन मैंने साक्षात्कार ना देने का फैसला कर लिया। मैं उस दिन कॉलेज गई ही नहीं।

    कुछ दिनों बाद पता चला कि गुरुपत्नी अर्थात श्रीमती वर्मा की, वर्मा सर के स्थान पर नियुक्ति हो गई है। मुझसे कुछ टीचर्स ने पूछा भी कि मैं इस पद के लिए साक्षात्कार के लिए क्यों नहीं आई, पर मैं चुप रह गई। शायद मेरे मनोभाव को समझते हुए उन्होंने कहा, “तुमने बहुत अच्छा व हिम्मत का काम किया जो इस पद के लिए साक्षात्कार ही नहीं दिया, वरना मिसेज वर्मा के लिए बहुत मुश्किल हो जाती। 

    मेरे लिए इतनी प्रशंसा है ही काफी थी। सच कहूं तो उसे पल मेरा मन असीम संतुष्टि से भर उठा था। मेरे आदरणीय गुरु जी के लिए इससे अच्छी धर्मदक्षिणा व श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी।

    अपने गुरूजी को याद कर मेरी आंखों में आंसू भर आए। मैंने काफी समय तक मिसेज वर्मा के साथ अध्यापन कार्य किया, पर इस घटना के विषय में मैंने उन्हें या किसी और को कुछ भी नहीं बताया। आज भी मुझे गर्व व संतोष है कि जीवन के इस दोराहे पर मैंने सही निर्णय लिया था, क्योंकि मैं तो विवाह के बाद बहुत दूर दूसरे शहर में आ बसी हूं और गुरुपत्नी पीएचडी करके आज भी उसी कॉलेज में पढ़ा रही है।

    जिंदगी का यह निर्णय भले ही कठिन था, पर यह सोचकर कि मेरे एक त्याग ने मेरे गुरु के परिवार को स्थायित्व प्रदान कर दिया, मुझे असीम शांति मिलती है अपने गुरु के प्रति मेरी यह धर्मदक्षिणा, आखिर कोई बहुत बड़ा मूल्य तो रखती नहीं।


    सम्पर्क 

    पूजा गुप्ता

    भगवानदास की गली 

    आदर्श स्कूल के सामने 

    गणेश गंज , मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)

    पिन कोड – 231001

    मोबाइल – 7007224126

    ईमेल – guptaabhinandan57@gmail.com