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बरसात में भीगता अंतर्मन

     कांता रावत

    हरिद्वार, उत्तराखंड

    जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    आकाश में उमड़ते- घुमड़ते

    बादलों का शोर,

    और उस पर मेरे अंतर्मन का खुश होना,

    उन गांव की,खेतों की पगडंडियों के

    टेढ़े- मेढ़े रास्ते पर,

    अठखेलियां करते हुए

    उस बावरे मन को लेकर निकल पड़ना,

    और चलते- चलते

    उन हरी-भरी वादियों में मेघों का

    अचानक से गर्जना,

    और फिर अपने बादल रूपी गागर से

    छम से मेरे ऊपर अपनी वर्षा की

    बूंदों को डालकर मुझे भिगोना,

    मेरे अंतर्मन का उन बूंदों के स्पर्श से

    प्रफुल्लित होकर नाचना,

    और फिर अपने में ही खो जाना

    मानो, अंतर्मन को नवजीवन मिल गया हो।

    और जीवन का एक सपना साकार हो गया हो।

    उस बरसात में उन पगडंडियों की,

    गीली मिट्टी की सोंधी खुशबू पर

    मेरे पैरों का चलना,

    और उसमें उनका डूबना मेरे अंतर्मन को,

    उस भीगी मिट्टी का स्पर्श करना,

    और मुझे अपने में समाहित करके

    सब बाहरी वस्तुओं से दूर कर देना ,

    और मेरे अंतर्मन को फिर से नवजीवन देना,

    और बरसात में भीगे मेरे अंतर्मन का

    अपने आप ही अपने स्वर में राग गाने लगना

    और, अपनी सुध -बुध खो बैठना,

    बरसात में ऐसा भीगता रहा मेरा अंतर्मन..