-अनुराधा पांडे
नई दिल्ली
जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3
गंध तुम्हारी फिर ले आई, सुबह-सुबह पुरवाई।
चंदन-जैसी महक रही है,मन की फिर अंगनाई।
यों तो मैं प्रिय !बाद तुम्हारे,
ठहरी निपट अकेले।
किन्तु चतुर्दिक रहे निरंतर,
सुधियों के ही मेले
लिपटी तन से रही तुम्हारी,
हरदम ही परछाई ।
चंदन-जैसी महक रही है–
मूर्त हुई-सी रहती अपनी,
मधुर मिलन की रातें।
भिगा दिया करती दोनों को,
सावन की बरसातें।
सौ-सौ बार जिया करती हूँ, मैं अपनी तरुणाई।
गंध तुम्हारी फिर ले आई,
सुबह-सुबह पुरवाई
चंदन-जैसी महक रही है,
मन की फिर अंगनाई।
-अनुराधा पांडे
नई दिल्ली