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रिमझिम बरसे सावन

    मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’

     लखनऊ,उत्तर प्रदेश

    जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    प्रकृति मोहिनी नवल निराली नित नव रूप बदलती है।

    बासंती  फागुनी कभी तो कभी सावनी लगती है।                                                                               

    बरखा का मौसम जब आता घिरती गहन घटाएं तब।

    वन में मोर नाच उठते हैं रिमझिम बरसे सावन तब।

     बरसे खूब झमाझम पानी संग हल्की सी धूप खिले।

     बरखा रानी  रुक जाती तब इंद्र धनुष अंबर उतरे।

    नीले-पीले, लाल-बैगनी इंद्रधनुष के रंग प्यारे।

    कैसे इसमें ये रंग आते मन भावन न्यारे-न्यारे।

    रवि किरणों की स्वर्णिम आभा में है मोहक रंग छिपे।

    वर्षा रानी मिली किरण से इंद्रधनुष तब नभ उतरे।

    जब भी दिखता इंद्रधनुष ये मन हर्षित हो जाता है।

     बाल सुलभ हो जाता है मन मीठे गान सुनाता है।

    सावन मन भावन है कितना त्योहारों से भरा हुआ।

    राखी के कोमल धागों में प्रेम प्रीत से सना हुआ।

    निबिया अमवा की डालों पर पड़े हिंडोले बागों में।

    गांवों में लहराता सावन मेंहदी रचती हाथों में।

    हरी चूड़ियाँ लगी खनकने पायल की रुनझुन-रुनझुन।

    कजरी और मल्हार गीत संग नाच उठा यह अंतर्मन।

    दादुर मोर पपीहा गाए मदमाता सावन महके।

    मन मयूर नर्तन करता है झींगुर भी झंकार करे।

    बरसो सावन झूम-झूम कर सबके दिल में नेह भरो।

    रसवंती दिनरात बना दो “मृदुल” मनोहर जग कर दो।