-राजेश ओझा
जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3
चौदह दिसम्बर उन्नीस सौ सत्ताइस।
जिला कारावास गोण्डा की एक सीलन भरी कोठरी।
ठक ठक ठक…
बूट की आवाज से बन्दी युवक ने सर ऊपर उठाया। देखा,जेल का एक सिपाही उधर ही आ रहा है।
“जेल के सारे कार्य तो अपने समय से होते हैं फिर अचानक से इस समय सिपाही के आने का क्या प्रयोजन हो सकता है ?” युवक ने श्रीमद्भगवद्गीता को माथे से लगाकर बगल में रखा और सिपाही के आने के कारण की उत्कंठा में उधर ही देखने लगा।
“राजेंद्र,तुम्हारे परिवार के कुछ लोग तुमसे मिलने आए हैं । बीस मिनट का समय नियत हुआ है। मुलाकाती कक्ष में चलो।” सिपाही पास में आते ही बोला था।
युवक की आंखों में पूरे परिवार का चेहरा अचानक से घूम गया। वह अब अन्तिम समय में परिवार से मिलकर स्वयं को कमजोर नही करना चाहता था ,लेकिन व्यक्ति कितना भी पत्थर दिल क्यों न हो , जब उसे लगता है कि अन्तिम समय आ पहुंचा है तो दूर बैठे सभी अपने रह रह कर याद आने लगते हैं।अचानक से स्मृतियों के आंगन में सब एक साथ आकर बैठ गये। भावनाओं का बड़ा सा ज्वार आया और नयन कोर गीले हो गये। जीवन में यह पहला अवसर था जब युवक इतना भावुक हुआ था। चेहरे को झट से सिपाही के तरफ से दूसरी तरफ करके साफ किया था और चल पड़ा सिपाही के पीछे ।
बंगाल प्रान्त के पवना जिले का एक छोटा सा गाँव मोहनपुर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए बड़ा चर्चित था। बंगाल में चल रही अनुशीलन समिति के गुप्त गतिविधि में इस गाँव का बड़ा योगदान था। इसी गाँव के लड़ाके क्षिति मोहन लाहिड़ी अनुशीलन समिति के गतिविधि में योगदान देने के आरोप में जब जेल में थे तभी उन्तीस जून उन्नीस सौ एक को माता वसन्त कुमारी ने राजेंद्र को जन्म दिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के दांव-पेंच देखते हुए राजेंद्र बड़े हो रहे थे। गाँव के प्राइमरी पाठशाला से वापस घर आते समय बच्चों के समूह से कुछ अंग्रेज सिपाहियों ने क्षिति मोहन लाहिड़ी का पता पूछा । बच्चों के उस झुण्ड में राजेंद्र भी थे। उन्हें लगा कि एक बार फिर पिता को पुलिस पकड़ने आई है। तो मारे क्रोध के बालक राजेंद्र ने अंग्रेज सिपाही के चेहरे पर थूक दिया। राजेंद्र की इस हरकत से और बच्चे तो भाग गये लेकिन उस अंग्रेज सिपाही ने बालक राजेंद्र को वहीं पेड़ से बांध दिया । इस घटना का परिणाम यह हुआ कि वाराणसी में रह रहे राजेंद्र के मामा नौ वर्ष के राजेंद्र को अपने पास बनारस ले आए और अब बनारस में आगे की शिक्षा होने लगी।
किशोर से युवा हो रहा मन बड़ा अशांत रहता है। इस दौर में मन अक्सर रुपहले संसार में विचरण करना चाहता है। मन में विपरीत लिंगी आकर्षण को लेकर मन के मीत का चेहरा मन में सजा होता है। दिल में मन की लटें उलझनें लगती हैं और संवाद लड़खड़ाने लगते हैं। सदैव मन में मीत से संगीत सुनने/सुनाने की चाहत बनी रहती है। ऐसे नाजुक उम्र में किशोर हुए राजेंद्र भारत मां का चित्र देखकर द्रवित हो जाते। बांह फड़क उठती। भौंहे तन जातीं। मुट्ठियां कस जातीं। किशोर से युवा हो रहे राजेंद्र ईश्वर प्रदत्त मेधा और अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़ रहे थे।कासी हिन्दू विश्वविद्यालय में उस समय राजेंद्र छात्रों की अगुवाई करते और साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ साथ अपने अन्दरूनी संकल्प (भारत मां को आजाद कराने का प्रण) जो लिया था उस पर दृढ़ प्रतिज्ञ रहे। बनारस में ही शचींद्र नाथ सान्याल के सम्पर्क में राजेंद्र आए । शचीन्द्र नाथ ने युवा राजेंद्र की प्रतिभा को पहचाना और दो महत्वपूर्ण पद उन्हें सौंप दिया। पहला तो उन्हें “बंगवाणी” पत्रिका का सम्पादक नियुक्त किया और दूसरा अनुशीलन समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का प्रभार सौंप दिया।
उस समय उत्तर भारत में एक प्रमुख क्रांतिकारी दल था “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन” । जिसका गठन लाला हरदयाल ने अपने कुछ उत्तर प्रदेश और बंगाल के मित्रों की मदद से वर्ष उन्नीस सौ चौबीस में कानपुर में किया था। अब राजेंद्र
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की गुप्त बैठकों में भी जाने लगे थे।
वर्ष उन्नीस सौ पच्चीस में राजेंद्र ने इतिहास विषय लेकर कासी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम ए प्रथम वर्ष में दाखिला लिया लेकिन होनी को कुछ और करवाना था। क्रांतिकारी गतिविधियों को पूरा करने के लिए धन की कमी आड़े आ रही थी। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सामरिक विभाग को देखने वाले पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के निवास पर एक गुप्त बैठक हुई। एसोसिएशन के गुप्तचरों से यह पता चल चुका था कि शाहजहाँपुर से लखनऊ जाने वाली आठ डाऊन ट्रेन में सरकारी खजाना जा रहा है। राजेंद्र नाथ लाहिड़ी ने पुरजोर आवाज में सरकारी खजाना लूट लेने का प्रस्ताव किया। जिससे लाहिड़ी को ही इस मिशन की अगुवाई सौंपी गयी। दिनांक नौ अगस्त उन्नीस सौ पच्चीस को ट्रेन जैसे ही काकोरी से चली लाहिड़ी ने चेन खींचकर ट्रेन रोक लिया और तभी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आजाद आदि ने अपने अन्य साथियों के साथ धावा बोल दिया। मजे की बात यह रही कि अंग्रेज सैनिकों को अकेले राम प्रसाद बिस्मिल रोके रह गये और वे बेचारे अंग्रेज सैनिक असहाय हो उन दस भारतीय क्रांति वीरों को खजाना लूटते देखते रहे। क्रान्तिकारियों के हौसला को देखते हुए उनकी हिम्मत नही पड़ी कि वे मुकाबला करें।
काकोरी काण्ड के बाद पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल ने राजेंद्र को कुछ समय के लिए पुनः बंगाल वापस भेज दिया। राजेंद्र अपने घर नही गये। वहीं अपने एक मित्र के यहाँ बम बनाने का प्रशिक्षण लेने लगे।तभी पता चला कि बड़ी बहन का विवाह है। राजेंद्र विवाह में तो नही जा पाए लेकिन बहन की ससुराल पहुँच गये। बड़ी बहनों के पास मां जैसा मातृत्व अंग राग होता है। भाई को देखते ही अतुलनीय स्नेह विखर पड़ा । घण्टों भावुक वार्तालाप के दौर में जब भी भावनाओं के मेघ उमड़ कर बरसे, भाई-बहन एक दूसरे के अश्रुजल पोंछते रहे। तभी पीछे से बहनोई ने कंधे पर हाथ रखा और कुछ गुप्त संकेत किया। राजेंद्र ने अपना कैमरा निकाला और बहनोई को खींचकर बहन के बगल खड़ा किया। लज्जावनत नव वधू का चेहरा छोटे भाई के समक्ष रक्ताभ हो उठा। उस समय भारत वर्ष के गाँव क्या शहर भी इतना भी नही खुले थे कि छोटे भाई के समक्ष बहन अपने पति के साथ सिमट कर खड़ी हो सके। यहाँ तो उसका सहचर भी हाथों में हाथ बांधे एक निश्चित दूरी बनकार खड़ा था। शर्मीले बड़े बहनोई को एक बार फिर खींचकर बहन के बगल खड़ा किया और एक सुंदर सी फोटो क्लिक करके फिर बम बनाने वापस चले गये।
एक दिन एक अप्रशिक्षित साथी की गलती से बम फट गया। पड़ोसी के घर के सुख से अगले पड़ोसी के घर की शान्ति खदबदाने लगती है। बम फटने पर किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। अपने तमाम साथियों के साथ राजेंद्र पहली बार पकड़े गये। मुकदमा चला और दस वर्ष के कारावास की सजा हुई जो बाद में अपील होने पर पाँच वर्ष में बदल गयी। लेकिन तुरंत बाद अंग्रेज हुकूमत ने काकोरी काण्ड का मुकदमा ब्रिटिश क्राऊन के विरुद्ध हथियार बन्द विद्रोह के रुप में चलाया जिसमें राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला खाँ, ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु दण्ड की सजा सुनाई गई और इन सबको अलग-अलग जनपदों की जेल में रखा गया।
यह समाचार विद्युतगति से बंगाल मोहनपुर और बहन की ससुराल तक पहुंचा और बड़ी बहन को जैसे ही पता चला कि राजेंद्र को गोण्डा जेल में रखा गया है वे परिवार के दो सदस्यों को लेकर गोण्डा आ गयीं। उस समय गोण्डा में आजादी के आन्दोलन की अगुवाई प्रमुख रुप से बच्चू बाबू,लाल बिहारी टण्डन और बाबू ईश्वर शरण कर रहे थे। ईश्वर शरण जी भी उस समय राजेंद्र नाथ के ही उम्र के थे ।अन्तर बस इतना था कि ईश्वर बाबू गांधी वादी विचारधारा के थे। उस समय तक ईश्वर शरण जी के यहाँ पंजाब केशरी लाला लाजपत राय, महामना मदनमोहन मालवीय, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद, आचार्य नरेंद्र देव आदि आ चुके थे। जिसका स्पष्ट गजट आज भी सूचना विभाग में सरकारी रुप से सुरक्षित है। वहीं वह तख्त जिस पर गांधी जी या सुभाष बोस बैठे थे,ईश्वर बाबू के वंशज आज भी सुरक्षित रखे हुए हैं। वह थाली,कटोरी जिसमें इन महान विभूतियों गोण्डा प्रवास के समय भोजन किया था,ईश्वर बाबू का परिवार अमूल्य धरोहर के रूप में रखे हुए है। राजेंद्र नाथ की बहन जी भी ईश्वर बाबू की अतिथि बनीं। ईश्वर बाबू ने बड़ा प्रयास किया कि बहन जी के साथ वे भी राजेंद्र नाथ से मिलने जेल जाएं,लेकिन जेल प्रशासन ने सिर्फ राजेंद्र नाथ के परिवार को ही मिलने की अनुमति दिया। बहन जी अगले दिन राजेंद्र नाथ से मुलाकात करने अपने परिवार के दो अन्य सदस्यों के साथ जिला कारागार गोण्डा के मुलाकाती कक्ष में थीं।
आगे-आगे सिपाही, पीछे-पीछे राजेंद्र नाथ। मन में भावनाओं के तमाम आयाम उभर रहे थे। घर से कौन आया होगा ? मां ?, पिता ?,भाई?,चाचा? तमाम पुरानी यादें दुशाले की तरह ओढ़ लीं थीं राजेंद्र ने बन्दी गृह से मुलाकाती कक्ष के बीच की दूरी में ।
सहसा बहन की आर्तनाद जैसी आवाज आपाद मस्तक भिगो गयी राजेंद्र नाथ को-“राजेंद्र,यह क्या हो गया भाई ? तुम्हारी निष्कलुष उज्ज्वल मुस्कान अब कहां मिलेगी ?”
राजेंद्र नाथ ने देखा कि वर्षों पहले बहन-बहनोई की जो फोटो उन्होंने खींची थी,वह तस्वीर बहन के हाथ में थी। कुछ तस्वीरों की अपनी कहानी होती है। राजेंद्र नाथ ने देखा बहन के चेहरे पर अपार दुख के साथ नाराजगी की भी एक परत है जिसमें बरसों के स्नेह का अनुराग छिपा था। वे पुनः पहले जैसी उज्जवल मुस्कान की तरह मुस्कराते हुए बोले-“दी, मुझे लगता है आपको इतना दुखी नही होना चाहिए। हमारे रक्त में आजादी के प्रति ऊष्ण दीवानगी है। यह तो आपको पता ही है कि जिस दिन मैं पैदा हुआ था उस दिन भी पिताजी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ही कारागार में थे।”
“लेकिन वे जीवित हैं भाई। अब तुम्हारी यह जादुई मुस्कान कहां मिलेगी।”
“मैं मरने नही, बल्कि स्वतंत्र भारत में पैदा होने जा रहा हूँ।”
अभी ये भाई-बहन बात ही कर रहे थे कि सिपाही ने मुलाकात के लिए नियत किये गये समय के समाप्त होने की सूचना दी। राजेंद्र अपनी सीलन युक्त कोठरी में पुनः वापस जाने के लिए उठते हुए बहन से अंतिम बार भावुक होकर बोले-
“दी मेरी एक अंतिम इच्छा है। पूरा कराओगी ?”
“बोलो भाई ,यह बहन प्राण देकर भी उसे पूरा करेगी।” बहन की आवाज लरज उठी।
“जब मुझे फांसी का फन्दा पहनाया जाएगा तो मैं अन्तिम बार “वन्दे मातरम्” का नारा लगाऊंगा। अगर मुझे जेल के बाहर से ‘वन्दे मातरम्’ का जवाबी उद्घोष मिला तो मेरी आत्मा को शान्ति मिल जाएगी।”
बहन की आंख से आंसू छलक पड़े। वहीं मुलाकात करवा रहे भारतीय सिपाही की आंखें भी भर आयीं और वह अपनी आंखों को पोछता हुआ राजेंद्र नाथ को उनके कक्ष की तरफ लेकर चल पड़ा ।
ईश्वर बाबू, अपनी मृत्यु के पूर्व तमाम बार इन बातों को पता नही किन किन प्रसंगों में.. किन किन सन्दर्भों में हम सबसे बता बताकर रोए हैं । उनके साथ हम सब भी रोते थे। राजेंद्र नाथ जी की बहन ने जब आकर ईश्वर बाबू से भाई की अन्तिम इच्छा के विषय में बताया तो ईश्वर बाबू रो पड़े । जेल के अधिकांश सिपाही भारतीय थे। ईश्वर बाबू ने अपने श्रोत से पता किया तो पता चला कि उन्नीस दिसम्बर की भोर में फांसी होनी थी लेकिन जेल प्रशासन को खबर मिली है कि राजेंद्र नाथ को कुछ क्रांतिकारी जेल से निकाल ले जाएंगे ,इसलिए अब फांसी नियत समय के पूर्व किसी भी दिन दी जा सकती है। ईश्वर बाबू,लाल बिहारी टण्डन और बच्चू बाबू ने राजेंद्र नाथ लाहिड़ी की अंतिम इच्छा पूरी करने की शपथ ली और जेल के पीछे तोपखाना गाँव से सटे घने अरहर के खेत में दिसम्बर की सर्द रात्रि में अपने तमाम साथियों के साथ बैठ गये। पूरी रात ठिठुरते रह गये लेकिन जेल के अन्दर से कोई आवाज नही आयी। अगले दिन रात्रि बारह बजे के बाद ये सब फिर वहीं इकट्ठा हुए और सत्रह दिसम्बर उन्नीस सौ सत्ताइस के उस मनहूस भोर में चार बजे जेल के अन्दर से एक गगन भेदी नारा ‘वन्दे मातरम्’ का आया। अरहर के खेत में बैठे ईश्वर बाबू की आत्मा रो पड़ी लेकिन इन सबने जवाबी उद्घोष दुगनी आवाज में वन्दे मातरम् का किया कि आवाज फांसी घर तक पहुँच सके।
अगली सुबह शहीद राजेंद्र नाथ लाहिड़ी जी का पार्थिव शरीर उनकी बहन जी को जेल प्रशासन ने सौंप दिया। बहन जी के आदेश से कुटिला (टेढ़ी नदी) के तट पर बूचड़ घाट पर ईश्वर बाबू ने ही लाहिड़ी जी का दाह संस्कार किया। अगले दिन अस्थि लेकर बहन जी बंगाल चली गयीं ।
आज भी जब लाहिड़ी जी की समाधि के बगल से गुजरता हूँ तो ईश्वर बाबू के संस्मरण रोएं खड़े कर देते हैं।
राजेश ओझा
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