शरद पूर्णिमा का चांद अपनी रुपहली निर्झरणी से अमृत छलका, कलश उठा , बरस भर के लिए विदा ले जा चुका है । सूरज की सुनहरी उंगलियों की छुअन से लरजती कास की तन्वंगी काया आवेग से फूल शिथिल हो चली है। कातिक मास अपनी पूजा, अर्चना, उत्सवों, प्रार्थनाओं से लदी टोकरी ले दरवाजे से आ टिका है। व्रत,उपवास की सात्विक आभा और धूप- अगर की पावन गमक से मन प्राण वृंदावन होने लगे हैं। और इन्हीं दिनों हवा में घुल गई है एक और मादक गंध। रास्ते चलते, पार्कों में टहलते, छज्जे पर बैठे गरज यह कि हर कहीं सब कुछ पीछे ठेल यह गंध आपसे आ लिपटती है और मन जान लेता है कि सप्तपर्णी फूलने लगी है।
क्या कहा, तुम्हारा भी पीछा करती है यह मादक सुगंध पर तुम कोशिश कर के भी इसका श्रोत नहीं ढ़ूढ़ पाए अब तक। ऐसा ही होता है जब पहली बार आ लिपटती है सप्तपर्णी की गंध आपसे। मेरे साथ भी हुआ था। सासों के तार में ऐसे रचती है कि मन मोहन की बंशी धुन पर राधा हो जाता है। खिंचे चले जाते हैं हम उसकी ओर, बिना डोर के बंध गए हो ज्यों। खींच के सांस जब भरो सप्तपर्णी की गंध प्राणों में तो देह तो जैसे कहीं बिला जाती है, रह जाता है केवल एहसास, नीले सपन सा हवा में तिरता।
पर बस थोड़े दिन का ही साथ होता है इसका। शीत की कुनमुनाहट के संग यह भी तैरने लगती है हवा में पर जब बहुत गहरा जाती है ठंड तो यह मादक गंध भी अपने पंख समेट लेती है।
यूं तो आजकल रोज सबेरे की सैर पर हाथ थामे चलती है सप्तपर्णी की महक पर पूनो की चांदनी में भीग जैसे उसके अभिसार में कुछ अलग ही निखार आ जाता है। फूले की थाली जित्ता वह चांद, गाढ़े नीले आसमान के छज्जे से टिक कर बैठ, अपनी भोली चितवन, दमकती काया और रुपहली मुस्कानों से बिछा जाता है सफेद गुच्छों से झमाझम लदे सप्तपर्णियों पर । कैसा तो अलौकिक निखार आ जाता है एक एक पेड़ की काया पर। बाताश के हर एक झोकें पर अपनी मदमाती सुवास से ऐसा प्रेम गीत रचते हैं ये फूल कि मन प्राण बौरा कर हवा में घुल जाने को आमदा हो जांय।
तो बस एक जोर की साँस खींचिए और भर लीजिए सप्तपर्णीं की गंध पूरे बरस के लिए मन- प्राणों में. बिदेसिया पाहुन हैं ये, बरस में एक ही बार आते हैं देहरी तक और वो भी बस थोड़े दिन को।
नमिता सचान सुंदर
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