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सम्पादकीय: साहित्य, संस्कृति और संवेदनाओं का संगम

    प्रिय पाठकों,
    ‘विहंगम’ के इस विशेषांक में आपका स्वागत है। यह पत्रिका केवल एक प्रकाशन नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपराओं और सामूहिक चेतना का दर्पण है। नवम्बर-दिसम्बर का यह समय जहाँ एक ओर वर्ष के अंतिम पड़ाव का संकेत देता है, वहीं दूसरी ओर हमें आत्ममंथन और नए संकल्पों की ओर प्रेरित करता है।

    इस अंक में आप पाएंगे साहित्यिक मणियों की एक ऐसी माला, जो हमारी सांस्कृतिक विरासत और आधुनिक जीवन की चुनौतियों के बीच पुल का कार्य करती है। ‘सप्तपर्णी’ जैसे लेख प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय भावनाओं का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करते हैं, तो ‘धर्मदक्षिणा’ जैसे संस्मरण नैतिकता और जीवन मूल्यों का अद्भुत परिचय देते हैं।

    कविताओं के माध्यम से जीवन की सरलता और गहनता का आभास होता है, जबकि कहानियाँ हमें सामाजिक ताने-बाने और मानवीय संवेदनाओं के समीप ले जाती हैं। ‘छठ पूजा’ पर आधारित लेख लोक परंपराओं की गहराई और उसमें निहित अध्यात्म को उजागर करता है।

    प्रिय पाठकों, साहित्य समाज का दर्पण है, और इस दर्पण में हमारा उद्देश्य न केवल आपकी रुचियों को संतुष्ट करना है, बल्कि आपको विचारशीलता और संवेदनशीलता के नए आयामों से भी परिचित कराना है। हम आशा करते हैं कि यह अंक आपको चिंतन, प्रेरणा और आनंद प्रदान करेगा।

    आइए, इस साहित्यिक यात्रा में हम एक साथ कदम बढ़ाएँ और अपने विचारों को साझा कर इस प्रयास को और समृद्ध बनाएं।

    आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में,
    श्रीमती शिप्रा खरे
    मुख्य संपादक
    ‘विहंगम’