– नमिता सचान सुन्दर
-जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3
सावन की बात छिड़ते ही हमारे मन में लहराने लगता है अम्मा के घर के सामने का वह पीले फूलों वाला पेड़। वैसे भी बात सावन की हो तो मां की देहरी तक खूंटा तुड़ा दौड़ा चला जाता है मन। खूब बड़ा और हरियल पेड़ था, घनेरी, हरी छाँव वाला, एकदम अम्मा के आंचल सरीखा।
उस पेड़ की मोटी डाल में पड़ता था रस्सी वाला झूला। झूला भी बस यूं ही नहीं डाल दिया जाता था कि रस्सी फंसाओ, पटरा बाँधों और हो गया। बाकायदा एक दिन पहले से हम सब पड़ोस वाले राघव भैया को घेर घार मनुहार, जिद कर झूला डालने का वादा करवा लेते थे। दिन -तिथि समय सब तो तय होता ही था। ब्लॉक की सारी लड़कियाँ पेड़ के नीचे इकट्ठा होती थीं। अम्मा, चाची लोग भी होती थीं और होती थीं राघव भैया वाली भाभी। सच कहें तो हमारे सावन की हरियाली तो इन्हीं भाभी से होती थीं। बहनों के लिए झूला डालते भैया को गाने गा गा कर चिढ़ाती भाभी धोती का पल्ला मुंह में दबा कर जब शरारत से मुस्कुराती थीं तो सच्ची बादलों के बीच लपलपाती बिजुरी भी कहीँ भीतर जा मुँह छिपा लेती थी। लड्डू तो भैया के मन में भी फूट रहे होते थे पर वे बिचारे बड़े भाई की गरिमा काँधे पर लादे बस कभी- कभी कनखियों से भाभी को देख भर लेते थे। भाभी मौके का भरपूर फायदा उठाती थीं और झूला डालते समय के गीतों के बोल उनकी खनकती आवाज में हवा में लहराने लगते —- ‘बहिनी का झुरवा झुलावे मोर सैंया, हमका न मैके जान देत…।‘ गाते- गाते छलक भी आती थीं उनकी आँखें। दरअसल भाभी के मैके की देहरी में उनकी बाँट जोहता कोई बचा ही नहीं था। न बैठा होगा कोई वहाँ आखें बिछाये, राह तकता, पर यादें तो थी न।उनकी पीड़ा हम सबको सालती थी।
वैसे हम लोगों के यहाँ प्रथा थी कि झूला पड़ जाने पर उस पर सबसे पहले ससुराल से आई बिटिया लोगों को बैठाया जाता था। पर एक बार ससुराल से मैके आई जिज्जी ने भाभी को जबरजस्ती सबसे पहले बैठा दिया और खुद पीछे से धक्का देने लगीं। एक -दो बार ही झूला इधर से उधर हुआ था कि गाना गाती भाभी अचानक से भरभरा के रो पड़ी और जिज्जी से जा लिपटीं। फिर दोनों एक- दूसरे को खूब जोर जकड़े हिलक हिलक रोने लगीं। दरअसल जिज्जी भी उस बार तीन साल बाद बड़ी मुश्किल से सावन में मैके आ पाईं थीं। उनके ससुराल वाले किसी बात पर गुस्सा हो गये थे तो उन्हें सावन तक में नहीं भेजा था पिछले तीन सालों से। जिज्जी को भी शायद तभी भाभी की पीर की चुभन पूरी शिद्दत से समझ में आई थी और वे भाभी के लिए मायका रचने की कोशिश कर रहीं थीं। हम लड़कियों को उस समय कितना क्या समझ में आया होगा वह तो नहीं बता पायेंगे पर हाँ, हम सब भी जिज्जी और भाभी के चारों ओर जा लिपटे थे। धोती से अपनी-अपनी आँखें पोंछती अम्मा, चाची लोगों के मन में भी कोई पुरानी याद पिरा जरूर उठी होगी। ऐसे जोड़ता था सावन लड़कियों को मायके की दहलीज से। यह जो साझापन था न दर्द का, छोटी-बड़ी खुशियों का, यही जिंदा रखता था मन की नमी को और जब नमी बनी रहेगी तो सावन तो लहलहाएगा ही।
मेंहदी लगाने के आयोजन की भी अपनी एक पूरी प्रक्रिया हुआ करती थी। उन दिनो ये कोन वाली रेडीमेड मेंहदी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था। हम लोग छोटी-छोटी डलियों में पार्क से, मंदिर के अहाते से मेंहदी की झाड़ियों से पत्तियाँ तोड़ कर लाते थे और रात का खाना निपट जाने के बाद सिल- बट्टे को धो पूज कर उस पर मेंहदी पीसने का कार्यक्रम प्रारंभ होता था। कोई भी प्रक्रिया हो साथ-साथ गीत तो चलते ही थे। हमें बाद के दिनों में अक्सर लगता था कि क्या भाभी को गीत रचना आता था और उनकी इस प्रतिभा को आंकना उस समय किसी को नहीं आया वरना उनके पास हर मौके के लिए एकदम उपयुक्त गीत आ कैसे जाते थे। हिल -हिल के सिलबट्टा चलाती जातीं और गाती जाती— ‘बाबुल के बागन से खोट लाए मेंहदी, ससुरे के सिल पे पीस डारी मेंहदी, रंग हमार चोखा पिया छुड़ाये न छूटे।‘ पीसने वालियों के आधे हाथ तो यूं ही लाल हो जाते थे और फिर वो पूरी हथेलियों में मेंहदी थोप लेतीं थीं और डिजाइन भी बस एक हुआ करती थी उस जमाने में—बीच हथेली एक गोला और अंगुलियों के ऊपर वाले पोर पर मेंहदी पर महीनों रहता था रंग मेंहदी का। धीरे- धीरे खत्म होती थी रंगत। सब कुछ टिकाऊ हुआ करता था उस जमाने में मेंहदी हो या रिश्तें।
फिर समय गुजरता गया और हममें से कुछ बिटियों ने शहर -गाँव की सीमा लांघी, कुछ बिराने देश जा बसीं, भाभी तो धरती की ही सीमा लाँघ आकाश हो गईं । धीरे धीरे सब रोजी रोटी के चक्कर में इधर- उधर हो गये। काफी अरसे बाद पिछले बरस किसी काम से उस शहर जाना हुआ तो पुरानी देहरी को देखने का लोभ न संवरण हुआ। बहुत कुछ बदल गया था। हमारी आँखें किसी पुरानी चिन्हारी की तलाश में इत-उत दौड़ रहीं थीं कि नजर पड़ी अपने झूले वाले पेड़ में। कैसी तो मरोड़ उठी मन में, ये वही पीले फूल बरसाता, सावन की हवाओं में झूमता हम लोगों वाला पेड़ है! पेड़ के दोनों तरफ वाले घरों के बाशिंदे तो बदल ही गये थे पर उन्होंने अपनी- अपनी बाउंड्री भी बढ़ा कर एकदम पेड़ तक कर ली थी। दोनों के बीच फंसा कसमसा रहा था पेड़। जाहिर है दूर तक छाया करती शाखायें कतर डाली गयीं थीं, बस ऊपर को जाती दो शाखायें जैसे आकाश से गुहार कर रहीं थीं कि हमें काहे छुड़वा दिया भगवान। और फिर सामने एक बरांडे में झिंगोला हो गई खटाटी खटिया में धंसे दिख गये भैया। हम गाड़ी किनारे खड़ी करवा कर दौड़ कर पहुंचे उनके पास..
‘भैया, पहचाना?’
थोड़ी देर आँखें गड़ाने के बाद वही नेहिल मुस्कान पसर गई चेहरे पर, ‘अरे बिट्टी, इत्ते बरस बाद अचानक। बैठो..’कह कर व्यस्त होते हुए एकदम से उदास हो गये। पनिया गई आंखें। कुछ देर बतिया कर, पानी पी कर हम जब चलने को उठे तो खटिया पर पड़े कुर्ते की जेब से एक मुडा -तुड़ा बीस का नोट निकाल हमारी मुट्ठी में दबाते हुये बोले, ‘सावन में बिटियां घर से खाली हाथ नहीं जाती।‘सच्ची, बुक्का फाड़ कर रोने को जी कलप उठा। वैसे भी सावन में बदरा बरसे या न बरसे ये मुई आँखें जरूर बरस जाती हैं, कभी बिछुड़ी देहरी की याद में, कभी किसी बिछुड़े हुए अपने से अरसे बाद मिल कर।
-नमिता सचान सुंदर
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