मीनाक्षी पीयूष
निवास- लखनऊ
जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3
नभ में बादल भरे-भरे हैं,
सावन के मेघ घिरे कजरारे।
बरसें बादल रिमझिम-रिमझिम,
धरती का पर कम दाह न होता।
सिमटी हुई हर नदिया का,
अब तो तेज प्रवाह न होता।
स्मृतियों में हम खो जाएं,
इतनी अविरल धारा बरसा रे।
नदियों में लहरों के ऊपर,
कमलों के दल झूल रहे हैं।
पुरवा के मदमस्त झोकों से,
सारे उपवन फूल रहे हैं।
हरियाली इस धरती पर,
मन मयूर अब नाच उठा रे।
चलो सखी सब झूला झूलें,
गायें कजरी और मल्हार।
चहुँ दिसि दादुर , कोयल बोले,
हर राधा करे श्रृंगार।
मतवाले घन उमड़-घुमड़ कर,
करें तप्त धरा को हरा-भरा रे।