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सावन पर चंद सवैये।

    -अभय कुमार “आनंद”
     जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3

    मुक्ताहरा सवैया

    हुआ तन जेठ यथा सजना,दृग सावन मास झड़े भरमार।

    बहा सब अंजन नैनन से,पग पायल मौन सुनो झनकार।

    भरे मन से सुन आज कहूँ,छलना अबकी  न सुनो ! सरकार।

    दिखे दृग पत्थर आज सुनो,मन सुप्त पड़ा अब तो थक हार।१।

    शब्दार्थ:

    सरकार – एक संबोधन पति के लिए

    अरसात सवैया

    घोर घटा घनघोर घिरा घन, मोद लिया अवतार  धरा सखी।

    मौसम मस्त मल्हार कहे सच,गीत रचो तुम प्यार भरा सखी।

    नीर झड़ा नभ चीर  धरा पर, रूप सजा  कचनार हरा सखी।

    नेह भरा बरसात दिखा कर,आज करो  उपकार जरा सखी।२।

    मदिरा सवैया

    हार  गले  कर   कंगन   कंचन, नैन  मृगा   मनभावन  था।

    केश  धुले  जब  नीर  झड़े  तब,मास लगा सच सावन था।

    मूरत  रूप  लगे  मुख  मंडल, मंदिर   बैठ   गया   मन था।

    श्यामल-श्यामल बाल घने सर,ज्यों लटका नभ में घन था।३।                      

    बादल बाज रहा  नभ  में, रसधार  धरा  पर  है  बरसी।

    बूंद सुधा सम है टपकी, जग प्यास बुझी कब से तरसी।

    शीतल धार जमीं टपकी,अति व्यग्र  धरा हृद से हरषी ।

    निर्मल कंचन श्वेत झड़ा,विभु पावन‌ प्राण हवा  सरसी।४।

    मत्तगतंद सवैया

    सावन साजन! नीर झड़े जब, मोर  उठा  पर  नाच दिखाए

    मास बसंत लगे मनभावन, कोयल  भी   नित  गीत सुनाए

    बाग सजा सब फूल मनोरम, सौरभ  से  मन  रोज  रिझाए

    बात कहूँ दिल नाथ सुनो मम,आकुल-व्याकुल याद सताए।५।

    शब्दार्थ

    सौरभ -सुगंध

    पर -पंख

    सावन विषय पर चंद मनहरण घनाक्षरी छन्द।

    काले -काले देख घन,धारे जैसे श्याम तन,

    उमड़-घुमड़ देख,नभ ध्वनि छाई है।

    सावन श्रृंगार किए, श्वेत नीर धार लिए,

    दिखे जस यौवना ने,प्रीति छलकाई है।

    मोर वन नाच उठे,तपन कराह भरे,

    लता ने भी ली है देखो, आज अंगड़ाई है

    नभ का संदेश आया,धरा मन खूब भाया,

    रिम-झिम स्वर जैसे, बजी शहनाई है।१।

    सावन पर चंद मुक्तक

    खनन-खन-खन  बजी  पायल,सजन को देख सावन में ।

    चमा-चम-चम   लगा   करने,उभर  पिय  बिंब   नैनन  में।

    विरह  फागुन   लिए   मस्ती, मदन-मन-मोर  बन   नाचा-

    सनन-सन-सन पवन बहका,दिखा नव-प्राण तन-मन में।१।

    सुनो साजन सुखद सावन, मुझे श्रृंगार कर जाना।

    हरे मन से  हरी चूड़ी, सजन  तुम  हाथ  पहनाना।

    विरह  की आग में झुलसी, बड़ी आशा लिए बैठी-

    सुनो शीतल फुहारों में, पिया  तुम  संग टहलाना।२।

    मुझे काली सुनो कोयल,चिढ़ा कर रोज जाती है।

    मगन हो  पास  पेड़ों पर, सुरीली  गीत  गाती  है।

    अरे तुम हो बड़े  निष्ठुर, मजे  में भूल कर मुझको-

    बता मेरे  जरा  छलिये,मेरी  क्या  याद  आती  है।३।

    -अभय कुमार “आनंद”

    विष्णुपुर, पकरिया,बाँका,बिहार व

    लखनऊ,उत्तरप्रदेश