-डॉ विभा खरे
-जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3
आधुनिक युग में बढ़ते हुए मानसिक तनावजन्य रोगों का एक कारण यह भी है कि आज का जीवन बहुत तीव्र गति से दौड़ना चाहता है । शहरों में लोग अपने को इस तरह व्यस्त पाते हैं कि उन्हें पड़ोसी तो दूर, परिवार के साथ मिलने-बैठने, बोलने-बतियाने और हँसने-हँसाने का भी अवकाश नहीं मिलता । इसके साथ ही विडम्बना यह कि चलने-फिरने से लेकर जीवन में आगे बढ़ने तक तेज और तेज की नीति अपनाई जा रही है। परिणाम यह होता है कि व्यक्ति को विश्राम करने की भी नहीं सूझती । विश्राम के लिए बैठते या सोते भी हैं तो उसमें भी दिमाग दौड़ता रहता है ।
बुरी बात नहीं व्यस्त रहना
व्यस्त रहना या तीव्र गति से विकास की आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं है । समय के एक-एक क्षण का स्फूर्ति के साथ उपयोग करना एक सद्गुण है । लेकिन उसके साथ विश्राम और शान्तचित्तता भी एक अनिवार्य आवश्यकता है । इन दोनों को यदि संतुलित ढंग से जीवन में समाविष्ट नहीं किया गया तो स्थिति एक कमजोर या टूटे पंख वाले पक्षी की भांति हो जायेगी । तेज और तेज भागो की नीति स्वास्थ्य के लिए हानि पहुँचाये बिना नहीं रहती । एक प्रसिद्ध मनःशास्त्री के अनुसार मनुष्य अपने स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाये बिना हमेशा भागते नहीं रह सकता । इसके कारण उत्पन्न होने वाले मानसिक तनाव से उच्च रक्तचाप, पेट के फोड़े (अल्सर) जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं यदि बराबर तेज रफ्तार से शरीर को चलायेंगे तो अधिक टूट-फूट होगी, ठीक वैसे ही, जैसे मोटर कार का इंजन कार को यदि तीव्र गति से हमेशा चलाया जाता रहे तो कभी एकाएक दुर्घटना घट सकती है । इसी प्रकार हड़बड़ी और हाय तौबा से भरी हुई जिंदगी भी किसी भी समय दुर्घटनाग्रस्त हो सकती है ।
मानसिक तनाव का कारण
जब शरीर में निहित क्षमता का निरन्तर व्यय किया जाता रहेगा विश्राम या शांतिचित्तता द्वारा अर्जन और व्यय का संतुलन नहीं रखा जायेगा तो अंततः शक्ति चुकती जायेगी और एक स्थिति ऐसी आयेगी जब जीवन नीरस, अशक्त, क्षीण और दुर्बल हो जायेगा । अर्जन और व्यय में संतुलन न होना भी मानसिक तनाव का एक बड़ा कारण है, यह कहा जा चुका है कि मानसिक तनाव सम्बन्धी समस्याओं पर वर्षों से अनुसंधान कर रहे रूसी चिकित्सक इवान सेम्पोनोविक खोसले ने आधुनिक सभ्य समाज के लोगों को एक नौका दौड़ प्रतियोगिता में भाग ले रहे नाविकों की संज्ञा दी है, जो पूरी ताकत से नाव खे रहे हैं, तेज और तेज । नाव निश्चित ही आगे बढ़ रही है, पर नाविकों की शक्ति निचुड़ती जा रही है और कईयों की निचुड़ चुकी है ।
अधिक ऑक्सीजन खर्च होती शारीरिक श्रम में
यही हाल मानसिक रूप से खींचे तने और शारीरिक रूप से थक जाने के बाद भी हड़बड़ा कर चलने वाले लोगों की है । थक जाने के कारण मांसपेशियों के अतिरिक्त खिंचाव में ऊर्जा खर्च होती है । यह ऊर्जा मांसपेशियों में रहने वाले ‘ग्लूकोनेट’ से मिलती है । यह तत्व मांसपेशियों की क्रियाशीलता के समय ऑक्सीजन के साथ संयोग करता है और लैक्टिक एसिड़ तथा कार्बन डाई ऑक्साइड़ गैसें बनाता है । इसलिए शारीरिक श्रम में अधिक ऑक्सीजन खर्च होती है, जिसके लिए तेज सांस लेना जरूरी हो जाता है । तेज गति से शवांस प्रश्वांस लेने पर कार्बन डाई ऑक्साइड़ तो सांस द्वारा बाहर चली जाती है, किन्तु लैक्टिक एसिड को ‘ग्लूकोनेट’ में बदलने के लिए ऑक्सीजन भी उतनी ही मात्रा में चाहिए जो नहीं मिल पाती, मिलती भी है तो परिवर्तन की प्रक्रिया उस गति से चल नहीं पाती । परिणामतः तनाव उत्पन्न होने लगता है ।
हम स्वयं ही आमन्त्रित करते तनावों को
इस प्रकार तनावों को एक तरह से हम स्वयं ही आमन्त्रित करते हैं । डॉ. खोसले ने आमंत्रित तनावों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है । पहला अनावश्यक आवेगमयता, व्यर्थ की हड़बड़ी और अत्यधिक भागन्दौड़, दूसरा प्रकार है अपेक्षाओं और वास्तविक जीवन में अंतर होने के कारण उत्पन्न होने वाले क्षोभ का तनाव । तीसरे किस्म के तनाव उपभोगों की दौड़ में पिछड़े होने की चिन्ता ।
पहले प्रकार के तनाव के सम्बन्ध में डॉ. खोराले का कहना है कि आवेगमयता चाहे प्रसन्न मनःस्थिति में हो अथवा क्षुब्ध स्थिति में समान रूप से तनाव उत्पन्न करती है । उदाहरण देते डॉ. खोरोल ने कहा कि डर कर भागने में हो या वासनात्मक आवेग से लिया चुंबन हो, दोनों ही स्थिति में बराबर तनाव पैदा होता है । इस तनाव से बचने का वैज्ञानिकों की दृष्टि में कोई ठोस उपाय तो नहीं है, पर इतना तो स्पष्ट है कि आवेश और असंयम के स्थान पर विवेक तथा संयम का दैनिक जीवन में समावेश किया जाय तो इस प्रकार के तनावेां से बड़ी सुरक्षा हो सकती है ।
आडम्बरों से मुक्त होकर अपनाया जाय जीवन क्रम
दूसरे प्रकार के तनाव जो कल्पनाओं, अपेक्षाओं और वास्तविक स्थिति में सामंजस्य न होने के कारण उत्पन्न होते हैं, को कम करने के लिए डॉ. हससेल्ये और खोरोल ने दो उपाय बताये हैं । पहला यह कि परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढालने के लिए संघर्ष किया जाय और वहीं कुछ प्रदर्शित किया जाय, उसे स्वीकार करने की मनःस्थिति बनाई जाय जो वास्तविक है । प्रायः हमारा जीवन कृत्रिमता, दंभ, छल, शेखी जैसी बड़प्पन के प्रदर्शनों में लगता है । वास्तविक स्थिति को ढांपने के लिए यथार्थ और कल्पना अथवा व्यक्तिगत आदर्शों में एक गहरा द्वन्द छिड़ता है । जिसकी न कोई सार्थकता है और न उपयोगिता । इस द्वन्द में अपनी शक्ति वैसे ही खर्च होती है जैसे अपने दोनों ही हाथों को आपस में लड़ाने, अपने ही पंजे भिड़ाने में खर्च होती है । उचित यही है कि छद्म जीवन और कृत्रिमता के आडम्बरों से मुक्त होकर ही सहज सरल जीवन क्रम अपनाया जाय।
तनाव जितने जटिल हैं उतना ही सरल समाधान भी
डॉ. खोरोल का मत है कि मानव जीवन के अधिकांश तनाव ईर्ष्याजन्य होते हैं । वह ईर्ष्या भले ही व्यक्तियों से हो अथवा परिस्थितियों से उदाहरण के लिए अभावग्रस्तता की कल्पना करके कितने ही लोग दुखी और उद्विग्न रहते हैं । अपने इस कथित अभावों से हर व्यक्ति आकुल और अशांत रहता है । पड़ोसी के पास उपभोग के साधनों की अधिकता से पता नहीं कितनों का खाना, सोना हराम हो जाता है । ये तनाव जितने भयंकर और जटिल हैं उतना ही सहज और सरल इनका समाधान भी है । वह है मात्र दृष्टिकोण का परिवर्तन, विचार शैली को बदल देना । औरों की तुलना में अपने अभावों का स्मरण आते ही यदि अपने से भी अधिक अभावग्रस्तों की ओर ध्यान ले जाया जाये तो बदली स्थिति में अपने को प्राप्त वैभव बहुत अधिक तथा अभाव बहुत कम प्रतीत होंगे ।
लक्ष्य के प्रति निष्ठा स्फूर्ति का सबसे बड़ा साधन
अपने अभावग्रस्तता का रोना पीटते हुए प्रस्तुत समस्याओं और अभावों का निराकरण करने के लिए उचित प्रयास किये जायें, यही एकमात्र उपाय है जिसे अपनाकर विपन्नता को सम्पन्नता में और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदला जा सकता है । ऐसी स्थिति में भी ऊर्जा का क्षय होता है परन्तु वह क्षय तनाव के कारण होने वाले क्षय से बहुत कम और पर्याप्त उपयोगी सिद्ध होता है । शरीर की दृष्टि से साधारण मनुष्यों को समान होते हुए भी संघर्षों के प्रबल थपेड़ों को सहकर, प्रतिकूलताओं के झंझावात में उलझते हुए कितने ही महामानव प्रसन्न और प्रफुल्लचित्त रहते हैं । इसका कारण बताते हुए डॉ. इवान पावलोव ने कहा है, ‘‘लक्ष्य के प्रति निष्ठा किसी व्यक्ति की स्फूर्ति और प्रफुल्लता का सबसे बड़ा साधन है ।’’
तनाव से बचने का सरल उपाय
कारण यही है कि वे अपने शक्ति भंडार का पूरा-पूरा उपयोग करते हुए भी हड़बड़ाहट या जल्दबाजी की आग में उसे अनावश्यक रूप से फूँकते जलाते नहीं है । स्मरण रखना चाहिए कि उतावली और हड़बड़ी में कोई काम जल्दी या ठीक प्रकार से सम्पन्न नहीं होता । तीव्र गति से भागने पर कहीं जल्दी तो पहुँचा जा सकता है पर उससे होने वाली थकान उतरने में उतना ही समय लग जाता है जितना कि स्वाभाविक चाल से चलने पर लगता । स्वाभाविक गति से चलने पर थकान के बचाव तो होंगे और अनेकों लाभ भी उठाये जा सकते हैं । अतः तनाव से बचने का सरल सा उपाय है सहज, सरल और स्वाभाविक जीवन का लक्ष्य निःसन्देह उच्च रखा जाय, पर उस ओर बढ़ने में अपनी सामर्थ्य क्षमता का भी ध्यान रखा जाय । उसके बाहर अतिवादिता की गई तो थकान तो निश्चित है ही, यह भी सम्भव है कि बीच में हड़बड़ाहट या दुर्घटना न घट जाये ।
डॉ विभा खरे
ज़ी- 9, सुर्यपुरम, नन्दनपुरा,
झाँसी (उ.प्र.) – 284003