-रामेश्वर वाढेकर
–जून जुलाई 2024, वर्ष-1 अंक-3
बारिश जोरों से गिर रही थी। सभी तरफ पानी ही पानी हुआ था। उसी समय गोदावरी को बाढ़ आई। नज़दीक बढ़ा बांध होने से पानी गांव में घुसा था। गांव पानी में पूरी तरह डूब गया था । पानी दिन- ब-दिन बढ़ रहा था। गांव के लोगों की धड़कनें बढ़ रही थी।अनाज भी खराब हुआ था। भूखमरी समस्या निर्माण हुई थी। पानी बढ़ने के कारण दूसरे गांव से संपर्क टूटा था। गांव की बिजली बंद हुई थी। मज़दूर लोग परेशान थे। अमीर लोग गांव छोड़ कर सुरक्षित जगह पर जा रहे थे किन्तु गरीब लोग वही थे। वे गरीब लोग कुछ दिन के पश्चात स्कूल में रहने लगे थे। लेकिन स्कूल शुरू थी।स्कूल के आधे हिस्से में पढ़ाई का कार्य शुरू था। कुछ अध्यापक की रहने की व्यवस्था वही थी।
रात के दो बजे थे। मां सोई नहीं थी।यानी उसे नींद ही नहीं आ रही थी। वह छत के तरफ एकटक से देख रही थी। चिंता में दिख रही थी।मैंने मां का उदास चेहरा देखकर तुरंत पूछा, “मां…, उदास क्यो है ? क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं रमेश बेटा। सोच रही हूं कि तेरी ज़िंदगी कैसी होगी ? तुझे बहुत पढ़ाना है किन्तु मैं पढ़ाऊंगी क्या ? यह प्रश्न मुझे निरंतर सताते हैं।”
“ तू भी ना… ऐसा क्यों सोचती हो ? हमरी बस्ती में प्रशांत, हीरा भी तो सामान्य परिवार से है। वे भी तो पढ़ रहे हैं। वे मेरे अच्छे दोस्त बने हैं। उनके विचारों में और मेरे विचार में साम्य है। उनके साथ मैं पढूंगा। मां, अब चिंता करना छोड़ दो। और जल्द से सो जाओ।”
सुबह-सुबह मैं उठा। वह मेरी हर दिन की आदत थी। मैं घूमने के लिए निकला। मैं हर दिन घूमता था शरीर और मन अच्छा रहे इसलिए। रास्ते पर मुझे हीरा दिखाई दिया। वह मेरा बहुत करीबी दोस्त था। हम दोनों घूमने के लिए निकल पड़े। वार्तालाप करते- करते गांव से तीन किलोमीटर दूर आ गए। मेरे मन में कहीं प्रश्न थे। वे मां से संभाषण करने के पश्चात उपस्थित हुए थे। मुझे बहुत उदास लग रहा था। मैंने थोड़ी देर बाद चिंता भरे स्वर में हीरा से कहा, “ हमें बहुत पढ़ना हैं मां-बाप के सपनों के खातिर। पढ़ाई के लिए सिर्फ़ पैसा ही सब कुछ नहीं होता। हिम्मत होनी जरूरी है। वह हमारे पास हैं। आर्थिक स्थिति बिकट है तब भी हम कुछ काम करके पढ़ाई जारी रखेंगे। मां-बाप का संघर्ष व्यर्थ नहीं जाने देंगे।”
“रमेश, हमारी नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई आसानी से पूर्ण हुई, क्योंकि अध्यापक अच्छे थे । दसवीं कक्षा के लिए बोर्ड परीक्षा है। परीक्षा केंद्र भी दूर है, इसलिए हमें अभी से तैयारी करनी पड़ेगी।”
“हीरा, हमरी दसवीं कक्षा की पढ़ाई सच में पूर्ण होगी।”
“रमेश, कुछ समय पहले तू ही मुझे हिम्मत दे रहा था।अब ऐसी बातें क्यो कर रहा है ? सुल सर हमारे आदर्श हैं। पढ़ाई जरूर पूर्ण होगी। हार मत मान। हमें सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देना हैं। जल्द चल,सुल सर इस रास्ते से जाते है।”
हम तेज रफ़्तार से निकले थे। क्योंकि हम सुल सर से बहुत डरते थे। मन में आदर युक्त डर था। किन्तु जो नहीं होना था वही हुआ। सुल सर सामने से आते हुए दिखाई दिए। उन्होंने नज़दीक आते ही गंभीर आवाज में कहा, “रमेश, पढ़ाई पर ध्यान दो। परीक्षा करीब आई है।”
“जी, गुरूजी।”
“रमेश, कोई दिक्कत है तो जरूर बताना।”
“हां…, गुरूजी। इतने में सुल सर को गांव के बुजुर्ग व्यक्ति दिखाई दिए। वे उनके तरफ निकल गए।”
हम भी निकल पड़े। रास्ते से चलते-चलते चर्चा शुरू ही थी हमारी। इतने में मैंने अचानक चिंता भरे स्वर में कहा, “हीरा, दसवीं की परीक्षा नज़दीक आई है। परीक्षा केंद्र दूर है। पेपर भी ज्य़ादा है। इतने दिनों का खर्चा…! साथ ही बाढ़ के वजह से निर्माण हुई बिकट परिस्थिति। कैसे जाएंगे परीक्षा के लिए ?”
“रमेश, बाढ़ की समस्या ज़्यादा दिन नहीं रहेगी। तकरीबन तीन महा से हम उसी समस्या से संघर्ष कर रहें हैं । साथ ही पैसों का जुगाड भी हो जाएगा। इसके बारे में ज़्यादा मत सोच। रास्ता निकलेगा।”
“हीरा,हम परीक्षा के कुछ दिन पहले कोई ना कोई काम करेंगे। जिससे कुछ पैसा मिल जाएगा।”
“रमेश,जो तुझे सही लगे।अब चल, मां राह देख रही होगी।”
दिन गुजरते गए,परिस्थिति बदलती गई। गांव में घुसा गोदावरी का पानी निकल गया। स्कूल में रहने वाले लोग अपने-अपने घर के तरफ दौड़ने लगे। सभी का बहुत नुक्सान हुआ था। वे घर होकर भी बेघर हुए थे। कलेक्टर के अधिपत्य में गांव का सर्वे हुआ । किन्तु जरूरतमंद व्यक्ति को मदत नहीं मिली । इसमें में भी सिफारिश चली। गरीब लोगों पर अन्याय हुआ। तब भी गरीब लोग हारे नहीं। ज़िंदगी से संघर्ष करते रहे। और उन्होंने फिर से घर बसाए।
परीक्षा कल थी। हालटिकीट लाने हेतु जाना था। मैं स्कूल के तरफ निकल चुका था। उतने में मुझे हीरा दूसरे के खेत में काम करते हुए दिखाई दिया। मैंने दूर से ही आवाज दिई, “हीरा,कल पेपर है। हालटिकीट नहीं लाना है ।”
“रमेश, मैं भूल ही गया था हालटिकीट लाने का। थोड़ी देर रूक। अभी जाएंगे।”
“ हीरा,जल्दी चल। सुल सर इसी रास्ते से बाइक से जाते है। उन्हें पता चला कि हमने अभी तक हालटिकीट नहीं लिया है तो वे बहुत डाटेंगे। इतने में उनकी बाइक नज़दीक आकर रूक गई। उन्होंने बड़े आवाज में कहा, “रमेश,कहां घूम रहे हो ? कल पेपर है,हालटिकीट नहीं लेना है।”
“गुरूजी,हालटिकीट लेने के लिए ही जा रहा हूं।”
-“तुम्हारी आंखें इतनी लाल क्यों हुई ? रात को ज़्यादा पढ़ाई किई है।”
-“हां…, गुरूजी।”
-“परीक्षा केंद्र पर जाने के लिए पैसें है ना…”
-“हां, है गुरूजी। नहीं होते तो आपको ही मांगने वाला था।सर,अब हम निकलते हैं।”
स्कूल के तरफ हम रफ्तार से निकले। तब भी हमारी आपस में चर्चा शुरू थी।स्कूल नज़दीक आई थी। इतने में हीरा ने मुझे पूछा, “रमेश, आपने सुल सर से झूठ क्यों बोला ?”
“हीरा, मैंने क्या झूठ बोला ?”
“वही, रातभर पढ़ाई।”
“हीरा, मैं किसी के लिए बोझ नहीं बनना चाहता।”
“रमेश,चल…,चल… बस्स कर। कल पेपर है…।”
हमरे सभी पेपर अच्छी तरह से गए। सिर्फ़ रिज़ल्ट की राह देख रहे थे। समय किस तरह से बीता पता तक नहीं चला। जिस दिन की राह देख रहे थे वह दिन भी आया। दसवीं का रिज़ल्ट घोषित हुआ। मेरे दिल की धड़कनें बढ़ने लगी थी। मैं उत्तीर्ण हूंगा क्या ? यह चिंता सता रही थी। इतने में मोहल्ले के बच्चों का शोर सुनाई दिया कि हीरा अच्छे प्रतिशत लेकर उत्तीर्ण हुआ। मैं भी उत्तीर्ण हुआ। लेकिन जो नहीं होना था वही हुआ। हमरा करीबी दोस्त प्रशांत नापास हुआ। उसे परिस्थिति ने तो साथ नहीं दिई और वक्त ने भी साथ छोड़ दिई। उसे हमने बहुत समझाया किन्तु वह हादसे से बाहर नहीं निकाला। वह बहुत दुःखी रहता था। ज़िंदगी में मैं असफल हुआ,ऐसा उसे लग रहा था। यहां तक की उसने पढ़ाई छोड़ दी। इतना समझाने के बावजूद भी…।
हीरा के मां-बाप बहुत खुश थे। क्योंकि हीरा अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ था। आगे तुझे किस क्षेत्र में जाना है ? मां -बाप बार-बार पूछ रहें थे। हीरा शांत था, कुछ नहीं बोल रहा था। उनकी सब चर्चा मैं सुन रहा था। क्योंकि मेरा घर नज़दीक था। थोड़ी देर बाद मैं घर से बाहर आया और आवाज दिई, “हीरा, बाहर आ। घूमकर आते हैं। खाना हज़म हो जाएगा।”
“रमेश,अभी आया। दो मिनट रूक। मैं लकड़ी लेता हूं। रात का समय है। बाहर बेवारस कुत्ते भी ज़्यादा हैं।”
“हीरा,एक बात पूछू।”
“हां…,पूछो ना, रमेश।”
“हीरा,तू मेरा साथ देगा ना…”
“जरूर दूंगा, रमेश।”
“हीरा,अब किस शाखा में अॅडमिशन लेना है ? ”
“किसी न किसी शाखा में लेंगे, रमेश।”
“हीरा, पढ़ने के लिए बहुत पैसें लगते हैं। इसके संदर्भ में भी सोचना पड़ेगा।”
“रमेश, हम कला शाखा में जाएंगे।”
“कला शाखा में क्यू हीरा ? ”
“रमेश, वहां ज़्यादा खर्चा नहीं लगता है।”
“हीरा, उस पर नौकरी मिलेगी ?”
“रमेश, पर्मनंट नौकरी का तो नहीं बता सकता किन्तु कुछ न कुछ काम जरूर मिलेगा।”
“हीरा, हमें जल्द से जल्द नौकरी करनी है। इसलिए हम कोई व्यावसायिक कोर्स करें तो…।”
“ रमेश,कौन-सा व्यावसायिक कोर्स ?”
“हीरा,एम.सी.व्ही.सी. कोर्स (व्यावसायिक कोर्स) कैसा रहेगा ?”
“रमेश, वही कोर्स करेंगे। अब घर चल। बहुत समय हुआ है।”
कालांतर से मैंने और हीरा ने एडमिशन लिया। हंसते-खेलते दिन बीत गए, पता तक नहीं चला। ग्यारहवीं,बारहवीं तक की शिक्षा पूर्ण हुई। फिर… वहीं प्रश्न आगे कौन-सी पढ़ाई करनी है ? कौन-सी भी पढ़ाई करने के लिए पैसें तो लगते वाले थे। सिर्फ़ फर्क इतना था कि शिक्षा क्षेत्र के अनुसार कम-ज्यादा पैसें देने पड़ते थे।
मैं आगे पढ़ पाहूंगा क्या ? यह सवाल मुझे बहुत परेशान कर रहा था। परिवार को मैं संकट में नहीं डालना चाहता था। कुछ दिनों से चिंता मुझे बहुत खा रहीं थी। इसी दिनों हीरा के पिताजी से मेरी मुलाकात हुई। उनसे कुछ चर्चा होने बाद मैंने आगे पढ़ने का ठान लिया। वार्तालाप करते- करते हम घर के तरफ निकल पढ़े। घर जाने के पश्चात घर के बाहर ही खड़ा हीरा दिखाई दिया। मैंने हीरा से उत्साहपूर्ण भाव से कहा, “मैं बी.ए.में एडमिशन ले रहा हूं। तू हीरा ।”
“मैं भी वहीं लूंगा, रमेश। हीरा ने हंसकर कहा।”
“हीरा, इसमें खर्चा भी कम है। पढ़ाई के साथ-साथ हम कुछ काम भी कर सकते है। इसी से खर्चा निकलेगा।”
“रमेश, तुझे जो अच्छा लगेगा वहीं करेंगे।”
समय के साथ हालात बदल गए। और हमरी स्नातक की पढ़ाई पूर्ण हुई। पढ़कर क्या बनना है ? कुछ तय नहीं था। सिर्फ़ पढ़ाई जारी थी।
बहुत दिन के पश्चात यानी तकरीबन पांच महा गुजरने के पश्चात एक दिन रमेश का फोन आया । वह दुःख भरे स्वर में कहने लगा, “हीरा,हमरी पढ़ाई करने की हैसियत नहीं है। हमें जो पढ़ना है वह हम पढ़ ही नहीं पाएं और आगे भी पढ़ नहीं पाएंगे,पैसों के कारण।”
“रमेश,हैसियत पैसों से नहीं, ज्ञान से तय होती है।”
“हीरा,यह सरासर झूठ है। यह सच होता तो हम रूचि के अनुसार पढ़ पाते।”
“रमेश,समाज के कई बच्चें है जो पढ़ाई नहीं कर पा रहें हैं।हम कुछ न कुछ तो पढ़ रहें हैं।”
“हीरा, आगे के शिक्षा संदर्भ में क्या सोचा है ? अब तक तो हुआ आगे…”
“रमेश,हम हार नहीं मानेंगे। शिक्षा अर्जित करेंगे। खर्चा कितना भी क्यों न हो।”
“हीरा, मैंने सुना है कि विश्वविद्यालय में पढ़ाई बहुत अच्छी तरह से होती है। अनेक रचनाकारों से वार्तालाप होता हैं। सही ज़िंदगी वहीं समझ आती है। हमरे कॉलेज के कुछ लड़के हैं वहां। उनके सहारे हम वहां रहेंगे। मैं जाकर आता हूं विश्वविद्यालय में। खुद का, परिवार का ख्याल रखना हीरा। बहुत सी चर्चा हुई। अब मैं फोन रखता हूं।”
कई साथी विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए दाखिल हुए। हमें विश्वविद्यालय का माहौल बहुत बढ़िया लगा। अपने-अपने रुचि के अनुसार सभी ने एडमिशन लिए। हीरा और मैंने वही पैसों के हिसाब से एम.ए. के लिए एडमिशन लिया। क्योंकि वहाँ ज़्यादा खर्चा नहीं था।
सभी साथी पढ़ाई में व्यस्त रहते थे। किसी को कोई दिक्कत होती थी तो सभी मदत करते थे। पढ़ाई में किस तरह समय बीत रहा था समझ में नहीं आता था। हीरा पुराना ही साथी था किन्तु विश्वविद्यालय में विवेक, औचित्य,संजय,सुरज, दीपक,सुमन,ज्योत्सना इत्यादि साथी मिले। इनमें से विवेक और ज्योत्सना मेरे बहुत करीबी साथी हुए थे। सुख-दु:ख मैं उन्हें बताया था। आज मैं जो कुछ भी हूं उन्हीं के वजह से।
हम सब मिलजुलकर रहते थे। एक दूसरे से सुख-दु:ख बांटते थे। खून के रिश्तें से भी गहरे रिश्तें बने थे हमारे । शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात सब अलग-अलग हो जाएंगे तो अवस्था क्या होगी सभी की ? यही चिंता सभी को सताती थी। सभी ने अलग- अलग विषय में उपाधियां हासिल की। नेट,सेट जैसी परीक्षा उत्तीर्ण हुए। क्योंकि अनेक साथियों का सपना प्राध्यापक बनना था। उन्हीं के कारणवश मेरी शिक्षा जारी थी। उसी समय हमारे समूह में ‘सुजाता’ नामक लड़की शामिल हुई। क्योंकि उसे हमारे सभी साथियों के विचार अच्छे लगे थे। वह बहुत शांत स्वभाव की लड़की थी। उसका हर एक शब्द बहुत कीमती है ऐसा उसके बोलने से लगता था। वह किसी से भी बातें नहीं करती थी। कई माह गुजरने के पश्चात वह बातें करने लगी। वह भी कम ही। जिस दिन मैंने उसे देखा उसी दिन से मैं उसे चाहने लगा था। मैं दिल दे बैठा था। यानी मैं प्रेम करने लगा था। मैं उसके साथ जीवन बिताना चाहता था। उसे जीवन साथी बनाना चाहता था। किन्तु प्रेम का इजहार कैसे करूं ? समझ नहीं आ रहा था। डर भी बहुत लग रहा था, उसके अनेक कारण थे। एक दिन मैंने हिम्मत करके ज्योत्सना बहन से कहा, “ मुझे आपसे कुछ महत्वपूर्ण बातें कहनी है। समय है आपके पास।”
“हां…,कहो रमेश।”
-“मैं सुजाता को चाहने लगा हूं। उससे प्रेम करने लगा हूं। सुंदरता देखकर नहीं,स्वभाव देखकर कर रहा हूं । किन्तु मुझमें बोलने की हिम्मत नहीं है।”
-“सुजाता तुझसे प्रेम करती है।”
-“पता नहीं।”
-“कुछ दिनों के बाद मैं सुजाता को पूछूंगी। मुझे कुछ काम के वजह से बाहर जाना है, चलती हूं मैं।”
मैं सिर्फ़ सुजाता के बारे में सोचता था। पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। मैं बैचेन हुआ था। सिर्फ़ प्रेम हासिल करना मेरा लक्ष्य बना था। अब करियर के बारे में भी सोचना छोड़ दिया था मैंने। मैं नशा में मग्न था प्रेम के। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी सुच नहीं रहा था। कुछ माह गुजरने के पश्चात एक दिन ज्योत्सना मुझे बाज़ार में मिली। मुझे नज़दीक बुलाया। और नाराज स्वर में कहने लगी, “रमेश,वह स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बोली। शायद वह तुमसे प्रेम नहीं करती।”
“किन्तु ज्योत्सना, मैं उसे बहुत चाहता हूं।”
“रमेश, तुम्हारे मन में जो कुछ है उसे स्पष्ट बताओ। न व्यक्त होने से अच्छा है कभी भी व्यक्त होना। अब मैं निकलती हूं।”
“ज्योत्सना, मैं जो दिल में है सब उसे बताऊंगा।”
मैं दिन -ब- दिन ज़्यादा सोच में डूब रहा था। परिणाम स्वरुप निरंतर दुःखी रहने लगा था। अकेले में रहना मुझे अच्छा लग रहा था। कई प्रश्न मन में उपस्थित हो रहें थे। सुजाता ने मेरे प्रेम को नहीं स्वीकारा तो मैं कैसे जिऊंगा ? यह चिंता मुझे बहुत सता रही थी। अब मुझसे बर्दास्त नहीं हो रहा था। अब मैंने तया किया था कि जो दिल में है सब उसके सामने बया करना है। आगे जो होगा उसे स्वीकार करने की हिम्मत मैंने खुद में निर्माण किई थी। मैं जिस दिन की राह देख रहा था वह दिन आया। दो-तीन महा के पश्चात विश्वविद्यालय में मुझे सुजाता दिखाई दिई। मैंने घबराते हुए कहा, “ सुजाता, मुझे आपसे बहुत दिन से एक बात कहनी है किन्तु मैं कह नहीं पा रहा हूं। लेकिन आज मैं किसी भी हालत में बोलने वाला हूं। अभी आपके पास समय है ?”
“ हां…,समय है रमेश। बोलो। ”
-“मैं तुमसे…”
-“तुमसे क्या ? स्पष्ट रूप से बोलिए। डरिए मत। मैं बुरा नहीं मानूंगी। जो मन में है बोल दीजिए।”
-“मैं तुमसे प्रेम करता हूं।”
-“किन्तु मैं नहीं करती।”
-“आखिर क्यों ? मेरे पास कुछ भी नहीं इसलिए।”
-“ऐसा कुछ नहीं है।”
-“मैं तुम्हें दिल से चाहता हूं। हां, मेरे पास नौकरी, प्रॉपर्टी नहीं है। तब भी मैं तुम्हें ज़िंदगी भर खुश रखूंगा। मुझ पर विश्वास करो।”
-“आप भी मुझे अच्छे लगते हो। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूं। लेकिन…”
-“लेकिन क्या ? बोलिए आप।”
-“आप की जाति। आप सवर्ण जाति से है, मैं निम्न जाति से हूं। समाज,परिवार नहीं स्वीकार करेगा मुझे।”
-“मैंने प्रेम जाति देखकर तो नहीं किया था।”
-“मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। जाने दीजिए विषय को मत बढ़ाईए। समय आने पश्चात मार्ग निकालेंगे। अभी आप पढ़ाई पर ध्यान दीजिए। मुझे अब शहर में पुस्तकें खरीद ने जाना हैं। मैं चलती हूं।”
मैं छात्रावास के तरफ निकल पड़ा था। अभी भी चिंता में ही था। सिर्फ़ प्रश्न बदले थे चिंता वही थी। इतने में विवेक बाइक से जाते हुए दिखाई दिया। मैंने जोर से आवाज दिई, “विवेक, कुछ काम में हो।”
“ कुछ काम में नहीं हूं, रमेश। बहुत दिन हुए आप दिखे नहीं। दिखे भी तो बातचीत नहीं हुई व्यस्तता के वजह से। चल, बैठते है कुछ देर के लिए गार्डन में।”
“विवेक, ज़िंदगी में पर्मनंट नौकरी बहुत मायने रखती है यार। इसके बिना कोई महत्व नहीं देता है। वर्तमान में कई लोग पढ़े-लिखे हैं किन्तु ज़्यादातर लोग बेरोजगार है। एम.पी.एस.सी. हो या यु.पी.एस.सी. या कोई दूसरी नौकरी,सभी में भ्रष्टाचार हो रहा है। परीक्षा के पहले पेपर फुट रहे है। पैसें देकर नौकरियां हासिल किई जा रही हैं। गरीब बच्चें पढ़ाई तो करते हैं,लेकिन पैसें कहां से लाएंगे ? यह व्यवस्था बदलनी चाहिएं। हमरा ही उदाहरण लीजिए, हमरे पास योग्यता है किन्तु नौकरी नहीं। क्योंकि हमरे पास पैसा और बड़े लोगों से पहचान नहीं है। ज्ञान है तो उसे कोई महत्व नहीं देता।”
“रमेश,छोड़ ना यार।”
“विवेक, क्यों छोडू ? बहुत से सहायक प्राध्यापक के साक्षात्कार कैसे लिए जाते है ? उसमें क्या पूछते है ? पता है न तुझे।”
“रमेश, परिवर्तन जरूर होगा। सब्र कर।”
“विवेक, परिवर्तन कब होगा ? हमरी जैसी कई पीढ़ियां बर्बाद होने के बाद। अरे, बहुत दुःख होता है योग्यता के बावजूद भी नौकरी नहीं है। प्रत्येक मां-बाप के सपनें होते हैं बच्चों से। उन्हें तो नहीं कह सकते कि नौकरी के लिए पैसें चाहिएं। क्योंकि उन्होंने अनपढ़ होकर भी हमें पढ़ाया। वे कई बार हमरे खातिर भूखे पेट सोए हैं। उन्हें अभी दुःख नहीं देना है। मैं उन्हें सुख नहीं दे सकता तो और दुःख क्यों दूं ? मेरी तो दसवीं कक्षा में ही हैसियत तय की व्यवस्था ने। मेरी ही नहीं, मेरे जैसे कई बच्चों की हैसियत तय हुई। वर्तमान में भी कई बच्चें विज्ञान, संगणक शास्त्र, वाणिज्य या ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण शाखा में जाना चाहते है किन्तु हैसियत बता देती है कि आप उधर नहीं जा सकते। क्योंकि आपके पास इतना बोझ उठाने की ताक़त नहीं है। बोझ ज्ञान का नहीं, पैसों का। मेरी तो कल भी हैसियत तय हुई और आज भी हो रही है। विवेक, बहुत से गंभीर विषय पर चर्चा हुई।अब निकलते है छात्रावास की ओर।”
चार-पांच माह गुजर चुके थे। सुजाता से मेरी मुलाकात नहीं हुई थी। उसे देखने हेतु आंखें तरस रही थी। मन में उदासी छाई हुई थी। चिंता तो थी ही। एक दिन अचानक सुजाता ग्रंथालय में दिखाई दी। मैं कुछ देर सिर्फ़ एकटक उसे देखता ही रहा। वह आंखों के सामने निरंतर खड़ी रहे,यह लग रहा था। मैं मन ही मन बहुत खुश हुआ। जैसे मैंने कोई जंग जीती हो। कुछ क्षण बाद मैंने उसे इशारों से बाहर बुलाया। वह बाहर आने के बाद मैं थोड़ी देर ठहरा। उसे आंखों में समाया। कुछ समय बितने के पश्चात उत्साहपूर्ण भाव से कहा, “सुजाता, हमें शादी करनी चाहिएं।”
“रमेश,आप भी न…मुझे और समय चाहिएं। मुझे परिवार के सदस्य को समझाना पड़ेगा। मुझे काम है, मैं चलती हूं।”
मैं उसी जगह पर शांत खड़ा था। वह जाने के बाद भी। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अब चिंता पहले से ज़्यादा बढ़ी थी। कुछ समय बाद मैं ग्रंथालय में पढ़ने हेतु निकल पड़ा। मेरा मन नहीं लग रहा था। मैं दिन भर कुछ नहीं कर पाया। मैं रात को रेल्वे स्टेशन पर मित्र को लाने हेतु बाइक पर निकल पड़ा। मैं वहां समय के पहले पहुंचा। एक खुर्ची पर बैठ गया। वहां सुजाता भी आई हुई थी कुछ काम के वजह से। मुझे देखकर वह दूर से पास आई। कुछ क्षण रूकी और दुःखी स्वर में नरवस होकर कहने लगी, “रमेश,मुझे आपसे महत्वपूर्ण बात करनी है।”
“सुजाता,बताओं।”
-“ मैं आपसे शादी नहीं कर सकती। मेरे परिवार वाले जो फैसला लेंगे वही मुझे मंजूर है।”
-“मैं कैसे रहू आपके बिना ? आप परिवार सदस्यों के विचार में परिवर्तन करो ना। वे शिक्षित हैं। जाति, धर्म को वे नहीं मानेंगे।”
-“मैंने उनके विचार में परिवर्तन करने की कोशिश किई। किन्तु वे खुद के विचार पर कायम हैं।”
-“ मां से एक बार फिर से बोलकर देखिए।”
-“ मां को बी.पी. है। मां को कुछ हुआ तो…”
-“आप मां से फोन लगाकर दीजिए। मैं उनसे बात करता हूं। हैलो…, नमस्ते काकी।”
-“ हां, नमस्ते। आप कौन ? आपका नाम।”
-“मैं रमेश। सुजाता का मित्र।”
-“हां, पता है। आप कहां से हो।”
-“महाराष्ट्र से।”
-“अभी क्या करते हो ?”
-“पी-एच.डी.शुरू है। नेट,सेट उत्तीर्ण हूं।”
-“यानी बेरोजगार हो। आप किस जाति से है ?”
-“आप शिक्षित होकर भी ऐसे प्रश्न पूछ रही है,यह आपको शोभा नहीं देता।”
-“ बेटा,मुझे समाज में रहना है। साथ ही दूसरी बेटी की शादी भी करनी है।”
-“ मैं सोच में पड़ा। कुछ देर चूप रहा। जोर से सांस ली। और कह दिया कि मैं सवर्ण जाति से हूं। और तुरंत फोन रख दिया। वहां से निकल पड़ा। मित्र को लेकर छात्रावास आया।”
मैं मानसिक रूग्न बनते जा रहा था। मेरी ज़िंदगी खत्म हुई,ऐसा लग रहा था। मैं ज़िंदगी से निराश हुआ था। मुझे जीने के बजाय मृत्यु अच्छा लग रहा था। मैं मां-बाप के सपनें भूल गया था। मुझे सुजाता से बोलने बगैर रहा नहीं जा रहा था। मैंने उसे फोन किया। उधर से आवाज आई, “रमेश, मुझे भूल जाओं। आपको मुझसे भी अच्छी लड़की मिलेगी।”
“मैं सिर्फ़ शांत रहा। कुछ भी बोल नहीं पाया। कुछ समय के पश्चात फोन बंद हुआ।
शरीर,मन अच्छा रहे इसलिए मैं हर दिन सुबह-सुबह घूमता था। आज भी घूमने के लिए निकला । किन्तु अब शरीर एवं मन रोगी बन चूके थे। मैं बहुत डिप्रेशन में गया था। सुबह-सुबह मुझे विवेक दिखाई दिया। वह भी व्यायाम कर रहा था। हम दोनों घूमने हेतु निकल पड़े। कुछ समय पश्चात मैंने नरवस आवाज में कहा, “ विवेक, मेरी सुजाता से शादी नहीं हो सख्ती।”
“ रमेश,क्यों ? क्या हुआ ?”
“विवेक, मेरे पास क्या है ? पैसा, नौकरी, अच्छा घर इनमें से कुछ भी नहीं।”
“रमेश,प्रेम में यह मायने नहीं रखता।”
“विवेक, सही में वही मायने रखता है। सुजाता गंभीर विषय पर कभी भी खामोश रहती थी, उसकी खामोशी सब कुछ कह जाती थी। क्योंकि वह जिस लड़के से शादी कर रही है उसके पास नौकरी, पैसा, बड़ा घर, मोटरगाड़ी, आराम की जिंदगी इत्यादि है। और महत्वपूर्ण बात लड़का बिरादरी का है। मेरे पास उनमें से कुछ भी नहीं है। है तो सिर्फ़ ज़िंदगी भर संघर्ष।”
“रमेश,अतीत को भूल जा। मुझे पहले जैसा आनंदी रमेश चाहिएं। तुझे खुश रहना है मां – बाप के खातिर। उसका अंतिम निर्णय क्या है ? पूछ ले। बातचीत में समय जल्दी गुजरा। कुछ समझ में भी नहीं आया। अब निकलते है।”
दोपहर के बारह बजे थे। धूप बहुत गिरी थी। मैं अकेला रास्ते से जा रहा था। सुनसान था रस्ता। इतने में स्कूटर पर जाती हुई सुजाता दिखाई दी। शायद वह पी-एच.डी. विभाग में ही जा रही थी। उसने मुझे देखकर भी अनदेखा किया। मैंने जोर से आवाज दी। वह रूखी। किन्तु घुस्से में दिखी। मैंने निस्वार्थ भाव से कहा, “सुजाता,तुम खुश रह सकती है तो बिनदास्त शादी करो। तुम्हारे खुशी में मेरी खुशी है।बस,तुम खुश रहो। तुम्हारे खुशी के खातिर मैं तुम्हें भूलाने की कोशिश करूंगा। कोशिश नहीं, भूलूंगा ही। इतना कहकर मैं वहां से निकल पड़ा। पहले जैसा अकेला ही।”
कई दिन बितने के पश्चात सुजाता विश्वविद्यालय में आने लगी। मुझे देखकर जानबूझकर दूसरे रास्ते से जाने लगी। उसे लग रहा था कि मैं उसके विवाहित जीवन में दरार निर्माण करूंगा। वह मुझे घृणा के नज़र से देख रही थी। उसने एक दिन इतना तक कह दिया कि मुझसे बात मत करो। मैं खुश रहना चाहती हूं। आप मेरे बर्बादी का कारण मत बनो। यह सुनकर बहुत दुःख हुआ मुझे।
सब साथी छुट्टी के दिनों में अपने-अपने गांव गए थे। मैं वहीं था छात्रावास में। सोच में डूबा हुआ। मुझे बहुत उदास लग रहा था। अकेलापन महसूस हो रहा था। दिल में बहुत वेदना इकट्ठा हुई थी। मुझे दुःख किसी से सांझा करना था। यानी दुःख को बांटना था। जिससे दिल का बोझ हल्का हो सके। मैंने तुरंत विवेक को फोन किया। उधर से प्रेम भरी आवाज आई, “ रमेश,बोल।”
“विवेक, क्या कर रहा है ?”
“कुछ नहीं,बैठा हूं रमेश। तुमने सुजाता को अंतिम निर्णय पूछा क्या ?”
“विवेक, दुनिया मतलबी है। समय-समय पर बदलती है। मां- बाप का प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है।
-रामेश्वर वाढेकर