नन्दी लाल “निरास”
वरिष्ठ साहित्यकार, गोला गोकर्ण नाथ
विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2
मम्मी पापा खेल देखते बचपन की आजादी का।
बाबा जलवा देख रहे हैं आँगन की बर्बादी का।।
चुरा ले गए चाबी बच्चे कुफ़्ल पड़ा का पड़ा रहा,
कजरौटा से काजल गायब बक्सा टूटा दादी का।।
टूटा चश्मा रखे नाक पर भारत स्वच्छ बनाते हैं,
चौराहे पर बापू बैठे मोल कर रहे खादी का।।
साहब को फुर्सत कब मिलती मोबाइल के खेलों से,
बैठे-बैठे ऊब गया कब दिल टूटा फरियादी का।।
बंद लिफाफे में क्या रक्खा वह जाने या साहब जी,
ऊपर ऊपर नाम लिखा है नेह निमंत्रण शादी का।।
चमड़ी वाले दाम ले गए घुसकर दमड़ी वालों से,
दाम देखकर काम हो गया झटपट अवसरवादी का।।
मुश्किल हो जाएगा खाना पीना जीना रहना सब,
यूँ ही बढ़ता रहा मुल्क में ग्राफ अगर आबादी का।।