-रेनू गुप्ता, जयपुर
विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2
नीलजा के कैंसर की आखिरी स्टेज थी। डॉक्टर ने आज ही तो उसके पति करण से कहा था, “अब कभी भी कुछ भी हो सकता है।”
यह सुन कर करण सुधबुध खो बैठा।
“नीलजा! ये क्या हो गया? हमारे हँसते-खेलते परिवार को किसकी नज़र लग गई? तुम मेरा साथ इतनी जल्दी छोड़ जाओगी, तो मेरा क्या होगा? कैसे जिऊँगा तुम्हारे बिना? उफ़, यह सब कुछ मेरे साथ ही क्यों होना था।”
पत्नी को बाँहों में बाँधे करण फूट-फूटकर सुबक उठा।
“नहीं करण!हिम्मत रखो!तुम्हारे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है। किसी अच्छी सी लड़की से शादी कर फिर से सुख से ज़िंदगी बिताना।”
“नीलजा!तुम्हारे बाद देवीना का क्या होगा? हमारी फूल सी दुलारी तुमसे अलग होकर कैसे जियेगी?”
“सब जियेगी करण!मरने वाले के साथ मरा नहीं जाता है। याद रखो,‘द शो मस्ट गो ऑन।’मैं कितनी बद-क़िस्मत हूँ,जो अपने साथ तुम्हें भी इतना दु:ख दे रही हूँ। बेवजह तुम रोजाना मेरे साथ सौ-सौ मौतें मरते हो। चुप हो जाओ करण, इतना मत रोओ। मेरा कलेजा फटता है।”
घड़ी की टिक-टिक के साथ वक्त रेत की मानिंद उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा था।
पल-पल काल के मुँह में जाती जीवनसंगिनी को अपने सीने से चिपकाए करण सोच रहा था, ‘काश, ये लम्हा ठहर जाता।’
“मेरी एक बात मानोगे?” “हाँ!”
“पहले मेरे सिर पर हाथ रख कर मेरी कसम खाओ।”
करण ने प्राणप्रिया के सिर पर हाथ रख दिया।
उसने क्षीण स्वर में कहा,“मेरे बाद किसी ज़रूरतमन्द, बेसहारा औरत से शादी कर लेना।”