Skip to content

अपनों का दंश

    – डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल’
     

    उर्मिला अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। वह कुशाग्र बुद्धि की धनी थीं। अतः पढ़ने लिखने में हमेशा अब्बल ही रहीं। उनके माता-पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर आत्मनिर्भर बनाने का पूरा प्रयास किया तो उर्मिला ने भी पूरे मन से पढ़ाई की और अंग्रेजी विषय से प्रथम श्रेणी में एम.ए. तथा फिर अंग्रेजी साहित्य में पीएचडी की उपाधि अर्जित की।

         इसके पश्चात उन्हें सरोजिनी नायडू कन्या महाविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति मिल गई। इस नियुक्ति से उनके माता-पिता को बहुत प्रसन्नता हुई मगर उनकी चिंता भी यह सोच कर बढ़ गई कि बेटी का विवाह इसी महानगर में कोई योग्य घर-वर खोज कर करना होगा ताकि उर्मिला की नौकरी में कोई व्यवधान न आए।

          काफी खोजबीन के बाद उर्मिला के पिता ने अपने ही महानगर के एक स्वजातीय युवक रघुवीर से उर्मिला का विवाह तय कर दिया। रघुवीर स्वस्थ और शिक्षित तो था किन्तु नौकरी में उर्मिला की तुलना में वह कहीं नहीं ठहरता था । रघुवीर  एक स्थानीय प्रायवेट लिमिटेड कंपनी में लिपिक के पद पर नियुक्त था। दूसरी कमी जो उर्मिला के पिता को खटक रही थी, वह थी रघुवीर का अपने परिवार में अकेला होना। रघुवीर भी उर्मिला के समान अपने माता-पिता की अकेली संतान था। मगर अन्य स्वजातीय वर उसी शहर में न मिलने के कारण उन्होंने रघुवीर से उर्मिला का विवाह कर दिया।

        इस विवाह से रघुवीर ही नहीं उसके माता-पिता भी बहुत खुश थे। एक तो उन्हें सुंदर, शिक्षित और ऊंचे वेतन पर सेवारत बहू मिली और उस पर उनकी कल्पना से भी अधिक दहेज लेकर उनकी बहू आई थी। अतः रघुवीर के माता-पिता और स्वयं रघुवीर भी उर्मिला का बहुत ध्यान रखते थे और उन सब की यही कोशिश रहती थी कि उर्मिला को कोई शिकायत का अवसर न मिले। उर्मिला भी अपने परिवार के सदस्यों के अपनत्व पूर्ण व्यवहार के कारण बहुत खुश थी। इस प्रकार उन सबका जीवन बहुत आनंद से व्यतीत हो रहा था।

        लेकिन ईश्वर  हर खुशी किसी को भी नहीं देता है । उर्मिला को भी विवाह के सात वर्ष व्यतीत होने के बाद भी मातृत्व का सुख नहीं मिला। रघुवीर और उर्मिला दोनों के माता-पिता अपनी अगली पीढ़ी के बच्चे का मुंह देखने की अपूर्ण लालसा लिए ही परलोक सिधार गए। इस बीच रघुवीर और उर्मिला ने अपनी अपनी डाक्टरी जांच भी कराई किन्तु चिकित्सा विज्ञान को उन दोनों में कोई अक्षमता नहीं मिली। रघुवीर के माता-पिता ने अनेक मनौतियां मनाई, पूजा -पाठ से लेकर झाड़-फूंक तक सारे यत्न कर डाले मगर उर्मिला की कोख सूनी ही रही।

          डाक्टरों की सलाह पर उर्मिला ने आई वी एफ प्रणाली से भी गर्भ धारण करने का प्रयास  किया किन्तु उसमें भी असफलता ही उसके हाथ लगी। अंत में हर तरफ से निराश होकर रघुवीर और उर्मिला ने एक कन्या को गोद लेने का निर्णय लिया। उर्मिला के महाविद्यालय में सहायिका के पद पर कार्यरत कौशल्या तीन बेटियों की मां थी। उसने जब चौथी बार गर्भ धारण किया तो उसने विद्यालय की कई प्रवक्ताओं से यह विनती की कि उसके गर्भ का परीक्षण किसी डाक्टर से करा दें और यदि गर्भ में कन्या का भ्रूण हो तो उसके गर्भ को नष्ट करवा दें क्योंकि उनका परिवार अब एक और कन्या का बोझ उठा पाने में असमर्थ है।

    मगर इसे जघन्य अपराध बताते हुए हर शिक्षिका ने उसकी सहायता करने से मना कर दिया। साथ ही, उसे ऐसा अपराध न करने की हिदायत भी दी।

        जब उर्मिला से कौशल्या ने इस कार्य में सहायता मांगी तो उसने कहा कि मैं तुम्हारे गर्भ की जांच कराने के अपराध में तो सम्मिलित नहीं हो सकती, यदि इस बार भी तुम एक कन्या को जन्म दोगी तो मैं उसे गोद ले सकती हूं। यदि तुम मेरे प्रस्ताव से सहमत हो तो किसी दिन अपने पति के साथ मेरे घर आ जाना और मेरे पति से इस सम्बन्ध में बात पक्की कर लेना।

    कौशल्या  को उर्मिला का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। उसने कहा -“ठीक है दीदी। मैं अपने पति से इस संबंध में बात करके रविवार को आपके घर उनके साथ आऊंगी।”

        अगले रविवार को कौशल्या अपने पति के साथ उर्मिला के घर पहुंची। वहां दोनों परिवारों के बीच बातचीत में यह तय हुआ कि कौशल्या ने यदि बेटी को जन्म दिया तो वे लोग उसे उर्मिला को दे देंगे और भविष्य में कभी भी उस कन्या से मिलने का प्रयास नहीं करेंगे तथा कभी कहीं यदि भेंट हो भी गई तो उससे कोई बात नहीं करेंगे। साथ ही, यह भी तय हुआ कि गोद लेने की कानूनी प्रक्रिया भी बच्चे के जन्म के सात दिन के अंदर पूर्ण कर ली जायेगी। बच्चे के जन्म पर और कानूनी लिखा पढ़ी पर होने वाला

    सारा खर्च रघुवीर और उर्मिला वहन करेंगे।

          संयोग से कौशल्या ने इस बार फिर लड़की को जन्म दिया और उर्मिला की मां बनने की साध पूर्ण हुई। उर्मिला ने काफी धन कौशल्या को इस हिदायत के साथ दिया कि वह इस धन का उपयोग अपने खाने पीने पर करे ताकि उसका स्वास्थ्य पुनः  ठीक  हो सके।

         उर्मिला ने दो वर्ष का बिना वेतन का अवकाश लेकर उस कन्या को पाला और उसे हर तरह की सुख-सुविधा देने का प्रयास किया। रघुवीर और उर्मिला ने उसका नाम आकांक्षा रखा। उन दोनों के जीवन में आकांक्षा के आ जाने से उनके जीवन के एक बड़े अभाव की पूर्ति हो गई थी और वे दोनों बहुत खुश थे।

         जब आकांक्षा दो वर्ष की हो गई तो उर्मिला ने बहुत भारी मन से आकांक्षा को एक क्रेच में दिन के आठ घंटे के लिए रखने की व्यवस्था कर दी और महाविद्यालय में अपना कार्य भार संभाल लिया।

        एक दिन उर्मिला के मौसा उसके घर आए। मौसी की मृत्यु के बाद से यद्यपि उन्होंने उर्मिला के माता-पिता से कोई संबंध नहीं रखा था, किन्तु घर आए व्यक्ति की उपेक्षा करना उसे उचित नहीं लगा अतः उसने अपने मौसा की सम्यक आव भगत की।

         उर्मिला के मौसा ने बातचीत के दौरान अपने झोले से आधा दर्जन केले निकाल कर उर्मिला की ओर बढ़ाते हुए कहा-“बेटी, तुम्हें कुछ भेंट करने लायक हमारी हैसियत तो नहीं है, मगर बेटी के घर खाली हाथ जाना भी उचित नहीं लगा सो यह केले लेता आया। इन्हें स्वीकार करो।”

         उनकी बात सुनकर उर्मिला भावुक हो गई। उसके मौसा ने बताया कि उनका बड़ा लड़का इसी शहर में एक सेठ की दुकान पर नौकरी करता है तथा छोटा लड़का सिक्योरिटी गार्ड है।

    शहर में मकान का किराया बहुत अधिक है।दोनों लड़कों के वेतन से किसी प्रकार काम चल रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि तुम्हारे मोहल्ले में यदि एक कमरा और रसोई डेढ़-दो हजार रुपए प्रतिमाह किराए पर मिल जाए तो हम लोग इधर ही आ जाएं। इससे जरूरत पड़ने पर तुम्हारे भाई तुम्हारी हर तरह से सेवा भी कर सकेंगे। और मैं तो दिन भर खाली रहता हूं, तुम्हारी साग-सब्जी ही ला दिया करूंगा और अपनी नातिन (आकांक्षा की ओर इशारा करके कहा) के साथ खेलने पर मेरा समय भी अच्छे से कट जाता करेगा।

         उनकी बात सुनकर उर्मिला बोली -“ठीक है मौसा जी, मैं पता करूंगी। इस बीच रघुवीर तीन कप चाय बना कर ले आया मगर मौसा ने चाय पीने से यह कह कर इन्कार कर दिया कि बेटी के घर हम लोग पानी भी नहीं ग्रहण करते हैं।

    यह सुनकर कर रघुवीर और उर्मिला ने काफी आग्रह किया मगर वे नहीं माने और बिना चाय पिए ही वहां से विदा हो गए।

        उनके जाने के बाद उर्मिला ने रघुवीर से कहा -” अपने मकान में नीचे एक कमरा और उसके आगे बरामदा खाली ही पड़ा है। यदि हम यह मौसा को रहने के लिए दे दें तो कैसा रहेगा?”

     “सोच लो भाई, रिश्तेदार कोई हो, उससे बहुत निकटता ठीक नहीं होती। फिर, पापाजी के समय तो मैंने इन्हें कभी तुम्हारे घर आते जाते देखा नहीं। उनकी मृत्यु पर भी इनके दर्शन नहीं हुए।  अब यह बड़ा अपनत्व दिखा रहे हैं।”

          हां, हैं तो ऐसे ही। मौसी को यह बहुत परेशान करते थे। अम्मा को जब मौसी से इसकी जानकारी मिली तो अम्मा  ने इनसे शिकायत की। उस पर यह अम्मा से  खूब लड़े और मौसी जी को हमारे घर से लेकर चले गए। फिर मौसी के मरने की खबर तक नहीं दी। मगर मैं सोचती हूं कि गरीब लोग हैं। जरूरत पड़ने पर अपने काम ही आयेंगे।”

        “तो रख लो।”- रघुवीर ने अनिच्छा से कहा।

         अगले रविवार को उर्मिला के मौसा अपने दोनों बेटों रमेश और सुरेश तथा बेटी सुमन‌ को लेकर उर्मिला के घर पहुंच गये। उर्मिला के मौसेरे भाई बहनों ने अपनी दीदी, जीजा और भान्जी से खूब प्यार का प्रदर्शन किया। और उनसे अपने मकान में ही एक कमरा किराए पर देने का आग्रह किया।

        उर्मिला ने अपना खाली कमरा और बरामदा उन्हें दिखाते हुए कहा -” यदि इतनी जगह में तुम्हारा काम चल जाए तो तुम लोग यहां रह लो।”

       यह सुनकर वे सब बहुत खुश हुए और अगले दिन ही अपना सामान लेकर उर्मिला के मकान में आ गए।

         कुछ दिन तो उन लोगों ने रघुवीर और उर्मिला की सेवा में तत्परता दिखाई तथा एक दो बार एक हजार रुपये किराये के रूप में देने का प्रस्ताव भी किया, मगर उर्मिला ने उनसे किराया लेने से इन्कार कर दिया। कुछ ही दिनों बाद उन लोगों ने धीरे-धीरे छल विद्या शुरू कर दी। वे लोग जब भी बाजार से उर्मिला के लिए सब्जी या और कोई अन्य सामान लाते तो कुछ न कुछ पैसों की हेराफेरी जरूर कर लेते।

    तीन साल बाद उर्मिला के किराएदार अशोक कुमार ने दूसरे शहर में स्थानांतरित हो जाने के कारण मकान खाली कर दिया। उनके पास एक कमरा और एक रसोई किराये पर थी। उनके जाते ही सुरेश और रमेश ने उर्मिला को बिना बताए ही अपना सामान मकान के उस हिस्से में रखकर कब्जा कर लिया । उर्मिला ने उनकी इस हरकत पर जब आपत्ति की तो बेहयाई से हंसते हुए बोले-” इतना पैसा तो है तुम्हारे पास। फिर मकान को किराए पर उठाने की क्या जरूरत है। … उनकी बात से सहमति व्यक्त करते हुए उर्मिला के मौसा बोले-“चार दिन बाद तुम्हारे भाई का विवाह होगा तो बहू को भी तो एक कमरे की जरूरत होगी।”

         उनकी बात सुनकर उर्मिला आश्चर्य चकित रह गई। शाम को रघुवीर और उर्मिला ने आपस में सलाह करके इन लोगों से मकान खाली करने के लिए कहा तो रमेश बोला -” मकान तो नहीं खाली करेंगे, तुम्हें जो करना हो कर लो।”

      यह सुन कर उर्मिला ने अपने मौसा से कहा -” रमेश की बद्तमीजी देख रहे हो मौसा?”

        “ठीक ही तो कह रहा है वह। तुम्हारे पास न रहने की जगह की कमी है और न ही धन की कमी है कि मकान किराए पर उठाए बिना तुम्हारा गुजारा नहीं होगा। फिर किस लिए मकान खाली करने को कह रही हो?” -मौसा ने आंखें दिखाते हुए कहा।

       रघुवीर और उर्मिला के बार बार कहने पर भी उनके मौसा ने मकान खाली नहीं किया। रमेश ने तो एक बार  मकान को लेकर वाद-विवाद होने पर रघुवीर का कालर तक पकड़ लिया। हार कर उन दोनों ने अपने मौसा और उनके परिवार से बोलना बंद कर दिया।

         एक दिन उर्मिला की शिष्या मालती अपने पति रमाकांत के साथ उनसे मिलने आई। रमाकांत उसी शहर में पुलिस अधिकारी थे। उर्मिला से उन्हें जब मकान पर रिश्तेदारों द्वारा नाजायज कब्जा कर लेने की जानकारी मिली तो वह हंस कर बोले – “आंटी जी, एक सप्ताह में यह आपका मकान खाली करके चले जाएंगे और जाते समय आपसे माफ़ी भी मांगेंगे।”

        और अगले ही दिन शाम को पुलिस  रमेश , सुरेश और उनके पिता को जीप में लाद कर ले गई और रात भर उनकी आव-भगत की। सुबह सात बजे तीनों बाप-बेटे लंगड़ाते हुए घर में घुसे और फिर पांचवें दिन मकान खाली करके चले गए।

         उर्मिला ने फोन पर बहुत पुलकित स्वर में  मकान खाली होने की सूचना अपनी शिष्या को दी तथा रमाकांत को धन्यवाद और ढेरों आशीष दिए।

    डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल’

    569क/108/2, स्नेह नगर,

    आलमबाग, लखनऊ -226005 मो.9956846197