Skip to content

छोटी बेगम

    बेनीराम “अंजान”

    वरिष्ठ साहित्यकार, गोला गोकर्णनाथ

    विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2

    अंग्रेजों का जमाना था। देश में चारों ओर गुलामी का बोलबाला था। सरकार और जनता के बीच चूहे और बिल्ली का खेल चल रहा था। अंग्रेजों के अत्याचार चरम सीमा पर थे। उनके खिलाफ आवाज बुलन्द करना मृत्यु को दावत देने के समान था। बड़े-बड़े राजे, महराजे, अमीर और उमराव उनके समक्ष हथियार डाल चुके थे। क्रान्तिकारियों को फाँसी के फन्दे पर झूलना पड़ता था। जमींदार और नवाब इतने विलासी और आलसी हो गये थे कि आये दिन अंग्रेजों को नज़राना देना, उनके लिए सामान्य बात थी। विलासिता में डूबे रहने के कारण उन्हें अपने राज्य की चिन्ता तक न थी। प्रजा भूख से मर रही थी।    

    नवाब सज्जाद अली भी इन्हीं नवाबों का अनुसरण कर रहे थे। नवाब की दो बीवियाँ थीं। बड़ी बीवी नाज़िरा बेगम अत्यधिक सुन्दर और भारतीय संस्कृति में पाली पोषी गई थी। वह अत्यधिक उदार प्रवृति की महिला थी। इसके विपरीत छोटी बेगम फातिमा खातून आधुनिक परिवेश में पढ़ ‌लिख कर बड़ी हुईं। नवाब साहब छोटी बेग़म पर सब कुछ न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहते थे। उसी समय लार्ड कैनिंग इंग्लैण्ड से गवर्नर बनाकर भारत भेजा गया। वह समय-समय पर उपहार भेंट करता और दावतों का आयोजन करता था।

                    एक दिन गवर्नर साहब ने नबाब को एक दावत का पत्र भेजा। नवाब साहब बहुत सरल स्वभाव के व्यक्ति थे और दिखावे से दूर रहते थे। वह अपने पूर्वजों की वस्तुओं को सहेज कर रखते थे। वह अपने पर दादा के द्वारा बनवाई गई अचकन, पायजामा और साफा जब कभी पहनते तो बड़े गर्व का अनुभव करते। सिर पर पगड़ी और गले में चमचमाता मोतियों का हार उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देता था। सिर पर चमकती हुई कलगी उनके नवाबी ठाठ बाठ की द्योतक थी। गवर्नर साहब के यहाँ जाने के लिए वही पुराना लिबास पहन रखा था। उसी समय छोटी बेगम आ धमकी। वह नवाब साहब की वेशभूषा देखकर तपाक से बोली “अजी, क्या शक्ल बना रखी है? इतनी बड़ी स्टेट के मालिक और भेष फकीरों जैसा।”

    “क्या बक रही हो? यह पोषाक मेरे वालिद की है। मैं इसे कभी नहीं छोड़ सकता। यह तो मेरी नवाबी शान है।” नवाब साहब ने तमतमाकर कहा। 

    “आपको क्या मालूम? गवर्नर साहब के यहाँ एक से एक नायाब लोग बैठे होंगे। यह वर्षों से पड़ी हुई अचकन और पगड़ी जिसमें बदबू आ रही है, पहनकर जाने न दूँगी।”

    “खुदा के लिए खौफ खाओ। मेरे पुरखों की दी हुई सौगात से तुम नफरत करती हो। यह तो मेरी पसन्द की बात है जो आज इतनी बड़ी स्टेट की सरताज बनी बैठी हो। वरन् कही पर दाल दलतीं। तब कहीं तुम्हारी अक्ल ठिकाने लग जाती।”

    “हे अल्लाह! मैं यह क्या सुन रही हूँ? मेरी तो किस्मत फूट गई जो इस खूसट के साथ निकाह हो गया।” छोटी बेगम ने मन में कहा। फिर नवाब साहब की ओर देख कर बोली – “अगर मेरी बात नहीं मानोगे तो मैं अपने पेट में खंजर उतार लूँगी और तुम मेरी लाश पर पैर रखते हुए गवर्नर साहब के यहाँ चले जाना।

                नवाब साहब की बड़ी बेगम अत्यधिक सरल स्वभाव की महिला थीं। वह सदैव अपने पूर्वजों का आदर करतीं। अपनी अपंग बूढ़ी वालिदा की सेवा में रात-दिन लगी रहतीं। इन सब बातों के अतिरिक्त वह छोटी बेगम को भी बहुत प्यार करती थी।

    छोटी बेगम के हठ पर वह नवाब साहब से गम्भीर होकर बोली, “हुजूर! आपकी भी ज़िद ठीक नहीं है। ज़माना बदल चुका है। लोग बाग़ नये ज़माने में साँस ले रहे हैं। पूरे मुल्क में अंगरेजियत का असर है। चाहे खाना हो या लिबास या रहने का तौर तरीका। सब कुछ अंगरेजियत में समा चुका है। देखा नहीं? कल सुन्नू लाला आये थे। वह मिरजई छोड़कर कोट पतलून में सजे थे और सिर पर था बरतानिया हैट आप क्यों झिझक रहे हैं। छोटी बेगम की ही ज़िद सही। उन्ही के कहने के मुताबिक कोट और पतलून पहनकर जायें तो अच्छा रहेगा।”

    “तुम भी उसी के सुर में सुर मिलाने लगीं। इसके कहने से मैं अपनी बूढ़ी माँ और बूढ़े बाप को बदल डालूँ? वह भी तो पुराने ख़यालात के हैं।”, नवाब साहब ने दाँत पीसते हुए कहा।

    “यह तो सब ठीक है। किन्तु जो लोग वक्त के साथ नहीं चलते, वही लोग धोखा खाते हैं। आप देखते नहीं? जो लड़‌कियाँ घर से बोरखा पहनकर निकलती थीं, वह आज नये फैशन में घूम रही हैं। यह वक्त का तक़ाजा नही तो और क्या?”

    “बेगम साहिबा! आज अंग्रेजों ने हमारा सब कुछ छीन लिया और बदले में एक छोटी सी जागीर दे दी है। इस पर हम अपने तौर तरीकों को भी बदल डालें, यह कहाँ का इन्साफ है?”

    “मैं यह सब जानती हूँ। फिर भी आप से अर्ज करती हूँ कि छोटी बेगम की बात मान लें और नये लिबास में गवर्नर के यहाँ जायें।”

             नवाब साहब एक क्षण के लिए ठहरे और ठोढ़ी पर हाथ रखकर कुछ सोचा। तत्पश्चात सलाउद्दीन को आवाज लगाई, “सलाउद्दीन इधर आओ। मेरे लिए कोट पतलून बनवाकर लाओ।”

                   नवाब साहब के पूरे साजो सामान के साथ कपड़े बनवाये गये। गोरे चिट्टे नवाब ने जब कोट व पतलून पहनी और सिर पर हैट लगाया तो उनका व्यक्तित्व पहले की अपेक्षा कहीं अधिक निखर उठा। छोटी बेगम ने जैसे नवाब साहब को देखा, वह गले में बाहें डालकर बोलीं- “अब ठीक है। मैं भी गाउन पहनती हूँ और पूरी मेंम बनकर आपके साथ चलूँगी। हाँ, एक बात और सुन लो। पुरानी लटपुंजिया बग्घी से नहीं चलूँगी। कार मँगवाइये। वरना आपकी रईसी को कोई तरजीह नहीं देगा।”

                         उस समय कार खरीदना, सबके बस की बात न थी। नवाब साहब के ख़ज़ाने में उनके पूर्वजों का दिया हुआ विशाल धन-संग्रह था। अतः गाड़ी खरीदने में कोई कठिनाई न हुई। लगभग छः घण्टे में उनके महल के सामने कार खड़ी हो गई। सफेद संगमरमर जैसी चमचमाती कार जैसे ही बेगम साहिबा ने देखी, वह खुशी से ऐसी उछली कि उनके हाथ में चोट लग गई। किन्तु मारे रोब के किसी से भी न कहा। बड़ी बेगम यह सब देखकर कुढ़ती रहीं। किन्तु अवाक् थीं। वह अपने अतीत को स्मरण करती हुई सोचने लगी-

                  “हे अल्लाह। हे परवरदिगार! तूने मेरे देश की तहजीब को क्यों मटियामेट कर दिया? देश में छोटी बेगम जैसे जाने कितने लोग हैं, जिन पर अंगरेजियत का भूत सवार हो गया। लोग अपने दादा और पर दादा के रीति-रिवाजों को भूलते जा रहे हैं। अंग्रेजों ने हमारी जागीरें छीन ली और कौड़िया गुलाम बना डाला। इसके अलावा हमारी इज्ज़त को भी महफूज़ रखना नहीं चाहते।”

                         तत्पश्चात सलाउद्दीन ने मुर्गे जैसी बाँग लगाकर कहा – “हुजूर गाड़ी तैयार है। आप छोटी बेगम के साथ कार में बैठ जायें। मैं गवर्नर साहब के लिए तोहफे लेकर चलता हूँ।” नवाब साहब और छोटी बेगम कार में बैठ गये और गाड़ी गवर्नर हाउस की ओर चल दी।

                             रात्रि के लगभग आठ बजे थे। गवर्नर हाउस नई नवेली दुल्हन की तरह सजा था। दीवारों पर लगी रंगीन बिजली की झालर साक्षात् खद्योत समूह की उपमा थी। गवर्नर हाउस के द्वार पर ब्रिटिश हुकूमत का फहराता हुआ ध्वज आसमान से बातें कर रहा था। कुछ ही क्षणों में नवाब साहब और छोटी बेगम गवर्नर हाउस के विशाल द्वार पर उपस्थित हो गये। सन्तरी ने उनका अभिवादन किया। नवाब साहब और उनकी बेगम सन्तरी के साथ एक-एक करके सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। उनके पीछे-पीछे छोटी बेगम बड़ी ठसक के साथ हाथ में पर्स लिए चढ़ रही थीं। नवाब साहब को कभी पतलून पहनने का अभ्यास न था। आज उन्होंने पहली बार पहनी थी। पतलून चौड़ी मोहरी की होने के कारण पैर में फँस गई और वह चारों खाने चित हो गये। दुर्भाग्यवश वह ऐसा गिरे कि उनकी रीड़ की हड्डी में दरार पड़‌ गई। शोर सुनकर गवर्नर साहब स्वयं दौड़ पड़े और बाँह पकड़‌कर ऊपर उठाया। अस्पताल से अस्थि विशेषज्ञ बुलाये गये और उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया गया।

               नवाब साहब पीड़ा से कराह रहे थे। उनके वस्त्र रक्तरंजित हो गये थे। नवाब साहब ने खानसामा से पुराने वस्त्र लाने के लिए कहा। किन्तु छोटी बेगम नवीन वस्त्रों पर अड़ गईं। उन्होंने बीच में बात काटते हुए कहा- “सलाउद्दीन  सन्दूक में चिकन का नया कुर्ता और पायजाया रखा है, उसे लेकर आना।”

                 “नये कपड़ों की क्या जरूरत? आप बेकार में अपना दिमाग़ दौड़ा रही हैं।” नवाब साहब ने कहा।

     “आपको हया शर्म है ही नहीं। नवाब होकर पुराने कपड़ो की फरमाइश करते हैं।”

    “गर्दिश में हया शर्म नहीं देखी जाती। मैं दर्द से परेशान हूँ और उस पर तू बक-बक लगाये है।”  

          “हे अल्लाह! इस जमाने में नेकी की गुंजाइश ही नहीं। मैं तो भले के लिए कह रही हूँ और उस पर मेरे माथे पर तोहमत। अच्छा बाबा! पुराने कपड़े ही सही। जैसी आपकी मर्जी।”

           सलाउद्दीन हवेली की ओर प्रस्थान कर गया। नवाब साहब का राजकीय अस्पताल में उपचार होने लगा। उन्हें अच्छे चिकित्सकों की टीम रोज देखती थी। उनकी तीमारदारी में बड़ी बेगम और उनकी माँ भी अस्पताल में दाखिल हो गईं। चिकित्सकों की टीम नित्य उनका निरीक्षण करती और औषधि देकर चली जाती। परन्तु छोटी बेगम सदैव कर्मचारियों से खिन्न रहती । एक दिन उनके दिमाग का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। एक कर्मचारी को फटकारते हुए बोलीं- “यह अस्पताल है या बकरियों की सराय? देखो, चारो ओर दीवारों पर कितनी गंदगी है। यह चादर बदलो। जानता नहीं, नवाब साहब कितने सफाई पसंद हैं?

    “माता जी! अस्पताल के कोष में एक भी पैसा शेष नहीं है। बड़े डाक्टर सरकार को कई पत्र लिख चुके हैं किन्तु अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई। मेरा तो आये दिन इसी प्रकार लोगों से पाला पड़ता है।” परिचारक ने कहा।

    “अच्छा, तो सुन। देख, उस नीले वेग में दो सफेद चादरें हैं। उनको शीघ्र लेकर आ।”

    “किन्तु यहाँ का नियम है कि अस्पताल की ही चादरें प्रयोग की जाती हैं।”

    “भाड़ में जाय तेरा अस्पताल और तू। मैं जो कह रही हूँ उसे कर। वरना नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा।

    “अच्छा, जैसी आप की मर्जी किन्तु बड़े डाक्टर के आने पर आप ही बात कीजिएगा।”

    “इसकी तू चिन्ता न कर। यह बात मुझ पर छोड़।”

    इसी समय सलाउद्दीन नवाब साहब के लिए पुराने परिधान लेकर आ गया। नवाब साहब को ढीले वस्त्र पहनाये गये। तब उन्होंने चैन की सांस ली। उसी समय अस्पताल में गवर्नर साहब के आने का समाचार आया। अतः वहाँ का प्रत्येक कर्मचारी चौकन्ना हो गया। दीवारों पर लगी काई साफ की गई। रोगियों की चादरें बदली गईं। सभी कर्मचारी समय से उपस्थित हो गये। गवर्नर साहब के आने के समाचार से छोटी बेगम के सिर में दर्द होने लगा। वह नवाब की ओर मुड़‌कर बोली- “हजूर आला, गवर्नर साहब आ रहे हैं। पुराने कपड़ो की जगह नये कपड़े पहन लीजिए। वरन् नवाबी को बट्टा लगेगा।”

    नवाब साहब ने बीच में टोककर कहा- “मेरी कमर और पैरों में तेज दर्द है। खुदा के लिए ऐसा न करो। मैं नये कपड़े पहनने के लायक नही हूँ।”

    “फिर क्या यतीमों जैसा वेष धारण करोगे।”

    “इसमें कौन सी तौहीन है। बीमारी में शान शौकत नही देखी जाती।”

    “मैं कुछ नही जानती। आपको नये कपड़े पहने ही पड़ेगें।”

                नवाब साहब दर्द के कारण कराह रहे थे, किन्तु छोटी बेगम की जिद के आगे एक भी न चली। उन्हें नये कपड़े पहनने पड़े। कुछ ही क्षणों में गवर्नर साहब अस्पताल में तेज चाल से उपस्थित हो गये। उन्होंने नवाब साहब से हालचाल पूछा और ईश्वर से शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की। एक सप्ताह के उपरान्त नवाब साहब को अस्पताल से छुट्टी मिल गई । तब कहीं फैशन परस्त बेगम से जान बची।