–आकांक्षा यादव
मानव जीवन में प्रकाश की महत्ता किसी से छुपी नहीं है। दुनिया के कई देशों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकाश-पर्व मनाये जाते हैं। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह भारतीय संस्कृति का मूल है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है।
हर वर्ष कार्तिक अमावस्या तिथि पर दीपावली का त्योहार मनाया जाता है और इसके 15 दिनों के बाद कार्तिक पूर्णिमा तिथि पर देव दीपावली का उत्सव मनाया जाता है। दीपावली तो केवल नश्वर लोगों के लिए है; देव दीपावली देवताओं का पर्व है। हिंदू धर्म में पूर्णिमा का विशेष स्थान होता है और इनमें कार्तिक माह में आने वाली पूर्णिमा का तो विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवी-देवता पृथ्वी पर आकर दीपावली मनाते हैं। इस मौके पर गंगा घाटों को सजाया जाता है और खूबसूरत रंगोली व लाखों दीये जलाकर इस त्योहार को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। धार्मिक ग्रंथों की मानें तो देव दीपावली के दिन गंगा नदी में स्नान ध्यान करने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
देव दीपावली मनाने के पीछे मान्यता है कि एक समय में तीनों लोकों में त्रिपुरासुर नामक राक्षस का राज चलता था। उसके अत्याचार से पीड़ित देवतागणों ने भगवान शिव के समक्ष त्रिपुरासुर राक्षस से उद्धार की विनती की। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उस राक्षस का वध कर उसके अत्याचारों से सभी को मुक्त कराया और त्रिपुरारी कहलाये। इससे प्रसन्न देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया था, तभी से कार्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली मनायी जाने लगी।
देव दीपावली मुख्य रूप से काशी में गंगा नदी के तट पर मनाई जाती है। इस दिन काशी नगरी में एक अलग ही उल्लास देखने को मिलता है। हर ओर साज-सज्जा की जाती है और गंगा घाट पर हर ओर मिट्टी के दीपक प्रज्वलित किए जाते हैं। उस समय गंगा घाट का दृश्य भाव विभोर कर देने वाला होता है। लोकाचार की परंपरा होने के कारण वाराणसी में इस दिन गंगा किनारे बड़े स्तर पर दीपदान किया जाता है। देश-विदेश से तमाम श्रद्धालु और पर्यटक इसमें शामिल होने और इसका साक्षी बनने के लिए पहुँचते हैं। विभिन्न घाटों विशेषकर दशाश्वमेघ घाट पर पर इस दिन भव्य गंगा आरती देखते ही बनती है।
वाराणसी या बनारस (जिसे काशी के नाम से भी जाना जाता है) दुनिया के सबसे पुराने जीवित शहरों में से एक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगरी की स्थापना भगवान शिव ने लगभग 5,000 वर्ष पूर्व की थी। काशी की भूमि सदियों से एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। प्राचीनतम वेद ऋग्वेद से लेकर स्कंद पुराण, रामायण एवं महाभारत सहित कई ग्रन्थों में इस नगर का उल्लेख आता है। बनारस की भूमि सदियों से एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक मार्क ट्वेन, जो बनारस की किंवदंती और पवित्रता से रोमांचित थे, ने एक बार लिखा था: “बनारस इतिहास से भी पुराना है, परंपरा से पुराना है, किंवदंती से भी पुराना है और सभी के साथ दोगुना दिखता है।”
वाराणसी अपनी प्राचीन विरासत के साथ-साथ अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति, कला और उत्सवों के लिए भी जाना जाता है। ज्ञान, दर्शन, संस्कृति, देवताओं के प्रति समर्पण, भारतीय कला और शिल्प यहाँ सदियों से फले-फूले हैं। भारत की पवित्र नदी गंगा भी यहाँ से प्रवाहित होती है, जिसके किनारे घाटों पर दीप प्रज्ज्वलन एवं दीप दान करके लोग आलोकित होते हैं। दीपावली के 15 दिन बाद वाराणसी में गंगा घाटों पर ‘देव दीपावली’ मनाने की परंपरा रही है। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन देवतागण स्वर्गलोक से उतरकर दीपदान करने पृथ्वी पर आते हैं, इसलिए इस दिन को देव दीपावली के नाम से भी जाना जाता है। देवताओं के साथ इस उत्सव में परस्पर सहभागी होते हैं- काशी, काशी के घाट, काशी के लोग। देवताओं का उत्सव देव दीपावली, जिसे काशीवासियों ने सामाजिक सहयोग से महोत्सव में परिवर्तित कर विश्वप्रसिद्ध कर दिया।
काशी में देव दीपावली उत्सव मनाये जाने के सम्बन्ध में मान्यता है कि राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश को प्रतिबन्धित कर दिया था। ऐसे में कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने रूप बदल कर काशी के पंचगंगा घाट पर आकर गंगा स्नान कर ध्यान किया। यह बात जब राजा दिवोदास को पता चला तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया। इस दिन सभी देवताओं ने काशी में प्रवेश कर दीप जलाकर दीपावली मनाई थी। एक अन्य मान्यतानुसार, देव उठनी एकादशी पर भगवान विष्णु चातुर्मास की निद्रा से जागते हैं और चतुर्दशी को भगवान शिव। इसी खुशी में देवी-देवता काशी में आकर घाटों पर दीप जलाते हैं और खुशियाँ मनाते हैं। इस उपलक्ष्य में काशी में विशेष आरती का आयोजन किया जाता है।
काशी में देव दीपावली का वर्तमान स्वरूप पहले नहीं था। पहले लोग कार्तिक पूर्णिमा को धार्मिक माहात्म्य के कारण घाटों पर स्नान-ध्यान को आते और घरों से लाये दीपक गंगा तट पर रखते व कुछ गंगा की धारा में प्रवाहित करते थे, घाट तटों पर ऊँचे बाँस-बल्लियों में टोकरी टाँग कर उसमें आकाशदीप जलाते थे जो देर रात्रि तक जलता रहता था। इसके माध्यम से वे धरती पर देवताओं के आगमन का स्वागत एवं अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि प्रदान करते थे। धीरे-धीरे देव दीपावली ने एक दिव्य व भव्य त्यौहार का रूप धारण कर लिया। पंचगंगा घाट पर चंद दीपों की टिमटिमाहट के साथ शुरू हुई काशी की देव दीपावली अब लोकल से ग्लोबल हो चुकी है। आसमान के सितारों के जमीं पर उतर आने का आभास देने वाली काशी की देव दीपावली को देखने देश-दुनिया से बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। इस दिन, धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी काशी के ऐतिहासिक घाटों पर कार्तिक पूर्णिमा को माँ गंगा की धारा के समानांतर असंख्य दीप प्रवाहमान होते हैं। असंख्य दीपकों और झालरों की रोशनी से रविदास घाट से लेकर आदिकेशव घाट और वरुणा नदी के तट एवं घाटों पर स्थित देवालय, महल, भवन, मठ-आश्रम जगमगा उठते हैं, मानो काशी में पूरी आकाश गंगा ही उतर आयी हों। गंगा आरती के बीच मिट्टी के लाखों दीपक गंगा नदी के पवित्र जल पर तैरते हैं। विभिन्न घाट और आसपास के राजसी आलीशान इमारतों की सीढियाँ, धूप और मंत्रों के पवित्र जाप के आह्वान से लोगों में एक नए उत्साह का निर्माण करती हैं।
काशी की देव दीपावली न सिर्फ सांस्कृतिक और धार्मिक, बल्कि पर्यटन के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है। देश-दुनिया से तमाम लोग इस दिन काशी में गंगा घाटों के अद्भुत दृश्य को निहारने और आत्मसात करने आते हैं। विभिन्न घाटों पर वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच गंगा आरती, दीप दान, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच यह कल्पना करके ही ह्रदय हर्ष और उल्लास से भर जाता है कि जब काशी में गंगा के 84 घाटों पर एक साथ लाखों दीप प्रज्वलित होते होंगे तो यह दृश्य कितना मनोरम होता होगा। देव दीपावली सिर्फ उत्सव भर नहीं है, बल्कि प्रकृति के सान्निध्य में दीपों के प्रज्ज्वलन के साथ-साथ यह स्वयं को भी आलोकित करने का पर्व है। तभी तो यहाँ से कुछ दूर स्थित सारनाथ में भगवान बुद्ध ने भी ज्ञान देते हुए कहा था- अप्प दीपो भव:।
आकांक्षा यादव
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