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धूप छाँव के दिन

    – विनोद शर्मा “सागर”

    खेलें हमसे आँख मिचौली

    धूप छाँव के दिन।।

    बाँध हवा के धागे से सब

    उड़ा रहे बादल

    गुब्बारों के जैसे नभ में

    घूम रहे पागल

    मन से करते हँसी ठिठोली

    धूप छाँव के दिन।।

    कभी लिए छाया की छतरी

    आते हैं पीछे

    कभी लंप धूप का पकड़े

    आँखों को मीचे

    बतियाते बनकर हमजोली

    धूप छाँव के दिन।।

    पुरवाई की पूँछ पकड़कर

    तकते खेत किसानी

    लदे पीठ पर पछुआ की फिर

    करते हैं शैतानी

    मस्ती की लटकाये झोली

    धूप छाँव के दिन।।

    घर आँगन में नहीं ठहरते

    टहलें बाग बगीचे

    सावन के संग झूला झूले

    कभी नीम के नीचे

    बना रहे छत पर रंगोली

    धूप छाँव के दिन।।

    विनोद शर्मासागर

    हरगाँव–सीतापुर