–शिप्रा श्रीजा
दुख आता है ऐसे
जैसे फटता है बादल
तब अचानक विशाल जलराशि पहाड़ सी टूट पड़ती है
बहा ले जाती है उपज के साथ रिहाइश भी
दुख आता है ऐसे
जैसे आती है सुनामी
मिनटों में समुद्र से उठता है बर्बादी का सैलाब
तबाह होकर वीरान हो जाते हैं शहर के शहर
दुख आता है ऐसे
जैसे फूटता है ज्वालामुखी
निकलती है आग और बहता है लावा
दबा कर सब कुछ, राख करके हर लेता है सारी हरियाली
दुख आता है ऐसे
जैसे लगती है जंगल में आग
जो हवा के साथ फैलती ही जाती है
पशु पक्षी कीड़े या मकोड़े, लील लेती है सबके आशियाने
दुख आता है ऐसे
जैसे आती है नदियों में बाढ़
तब बांधों को भी तोड़कर तड़क जाता है पानी
किनारों को काटकर निकाल देता है पैरों तले की जमीं
दुख हमेशा ऐसे ही आता है
खबर नहीं देता किसी को
उसकी आदत है बिन बुलाए मेहमान जैसी
आकर जल्दी न जाना ही हमेशा से फितरत उसकी
दुख ऐसे ही आता है
कि कानों कान खबर न हो
पहर की कोई बंदिश नहीं होती है उस पर
इजाज़त की दरकार नहीं कोई फ़िक्र कोई परवाह नहीं
दुःख जब भी आता है
सुख दूर दूर तक नज़र नहीं आता
क्योंकि दुःख आते ही घोंट देता है सुख का गला
और उधार की सांसे लेने के लिए सुख हो जाता है दर बदर
–शिप्रा श्रीजा