–लेखा वर्मा, गाज़ियाबाद
विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2
हमने बचपन में देखा था,
प्रकृति का सौम्य रूप,
कलकल करती नदियाँ थीं,
स्वच्छ जल से भरपूर।
बहती थीं मर्यादा में
उफ़ान कभी न आता।
वृक्षों का संरक्षण था,
प्रेम उन्हीं का भाता।
नन्हें बालक नदिया तीरे
हर्षाते मस्ताते
खेल रोक बीच बीच में
डुबकी जा लगाते।
वृक्षों की जड़ों से
मिलता था सहयोग,
निर्मल जल में उनकी छाया,
भ्रमित करती थी रोज़।
गगनचुंबी पर्वत श्रृंखला
हरियाली भरपूर,
लम्बे ऊँचे वृक्षों को देख
प्रश्न उठते थे ज़रूर।
इतने ऊपर जाकर क्या
करते होंगे?
ईश्वर से बातें कर के
पृथ्वी को समझाते होंगे।
नदिया के संग कितने फल
बहते जाया करते थे,
पंछी उन की नाव बनाकर
दूर दूर तक जाते थे।
सूरज चंदा थे मुस्काते
हरी भरी धरणी को देख,
बादल घुमड़ घुमड़ कर
धरती की प्यास बुझाते थे।
समय ने ली करवट,
विकास का दौर समक्ष आया,
हरे भरे सघन वनों पर
मानव ने कोप दिखाया।
निज स्वार्थ पूर्ति हेतु
सब को कष्ट पहुंचाया,
वृक्षों को काटा,
पर्वत को लूटा,
पशु पक्षियों को
बेघर कर ,
नदिया पर हक जमाया।
न केवल वृक्षों को काटा,
बालू का भी करा सफ़ाया।
अब प्रतिदिन क्यों तू
रोता है?
बाढ़ से फिर क्यों डरता है।
भू स्खलन होने पर
सरकार से क्यों लड़ता है?
जो बोया है उसको काटो,
समय रहते, अभी सचेतो,
क्या लाए थे,
क्या ले जाओगे,
माँ पृथ्वी को
अब तो बख़्शो।
वृक्ष लगाओ,
पर्वत, जंगल
हरे-भरे हों,
तो नदिया भी मुस्काएगी।
माँ पृथ्वी की गोद में
एक नयी सुबह आएगी।