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हवा गरमाने लगी है

    श्रीकान्त तिवारीकान्त

    वरिष्ठ साहित्यकार

    गोला गोकर्णनाथ, खीरी

    विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2

    सूर्य के माथे पर बल हैं,

    छांव अकुलाने लगी है।

    हवा गरमाने लगी है।।

    अंगरक्षक ही अचानक सब लुटेरे हो गए हैं।

    बात करते फूल की जो पन्थ कांटे बो गए हैं।

    प्रीति, प्रतिभा, शांति हमसे,

    रुठ कर जाने लगी है।

    हवा गरमाने लगी है।।

    ज्ञान जिनको स्वाद का कुछ है नहीं ,पर माल काटें।

    स्वार्थमय दुर्भावना से कुंज में भूचाल बांटें।

    कैक्टस के फूल की रस गंध

    जब भाने लगी है।

    हवा गरमाने लगी है।।

    पाल बैठे पेड़ का भ्रम जो कभी घुटनों चले हैं।

    झूठ बन आकाश बैठा सत्य के सपने छले हैं।

    कोकिला का कंठ सकुचा,

    मेढ़की गाने लगी है।

    हवा गरमाने लगी है।।