स्मृति सिंह, असि. प्रोफ़ेसर
आर्य कन्या महाविद्यालय, हरदोई
विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2
भारतीय संस्कृति में मानव समाज में केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि उस वातावरण में रहने वाले भांति भांति के प्राणी भी समुदाय का अंग होते हैं। ग्रामीण अंचल में आज भी पहली रोटी गाय और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए सुरक्षित रहती है।
मेरे मायके में एक गृह बगीचा है जिसमें में एक गिलहरी बड़े ही मजे से पिता जी के पैरों के बगल में आकर अक्सर पारले बिस्किट का आनन्द लेती है। इनके अलावा इनके जैसे कई लोगों की दिन भर की आवक रहती है। सबका आहार स्वाद और शर्त के अनुसार निश्चित है। इन्हे केवल पारले पसंद है। ये खाती भी हैं और बचा कर कहीं दूर अपने कोटर में अपने लाल और लाली के लिए भी ले जाती हैं। बुलबुल उर्फ नाइटिंगेल केवल केला खाती हैं और अन्य किसी से कोई सरोकार नहीं है। गौरैया के लिए चावल के दाने और कोहे में पानी संरक्षित रहता है। इसी से संबंधित एक दृष्टांत बरबस ही याद आ जाता है। भाई की शादी के दिन व्यस्तता के चलते चिड़ियों को दाना नहीं डाला गया। बारात निकल चुकी थी। जब याद आया तो पिता जी और मैं वापस आए और घर का ताला खोल कर चावल डाला गया।
शर्त ये है कि केला और बिस्किट केवल मालिक अर्थात पिता जी के ही हाथ का होना चाहिए। बाहरी लोगों (हम लोग) के जाने पर औपचारिक दूरी बना ली जाती है। आती हैं लेकिन सहमी, सकुचाई सी। नील कंठ को कैरेंडेरा पर कुछ चुनते हुए देखा जा सकती है और बुलबुल को गंधराज पर बैठना पसंद है। एक बहुत ही छोटी सी हरे रंग की चिड़िया आती है जो आंवले पर बैठ कर गहन निरीक्षण करती रहती है। मालती की सघन लताओं और केवड़े के पेड़ में जाने कितने घरौंदे बने हैं।इसके अलावा पेंडकी, किलहटी, चरखी, शुक्लाइन और जाने कितनी प्रजातियां कलरव करती रहती हैं। सारे दिन इनकी धमा चौकड़ी, चहचहाहट और छीना झपटी से पूरा घर गुलजार रहता है। इनके सानिध्य में आप बोरियत , डिप्रेशन, थकान जैसे आधुनिक शब्दों से बहुत दूर होते हैं। आप इन्हे देखते हुए घंटों जॉन कीट्स की कविता ’Ode to Nightingale’ याद करते हुए बिता सकते हैं।
ऐसे ही वातावरण पर एक कविता भी लिखी है –
कभी तो आइए गांव की ओर,
मिलता है सब कुछ पर बिकता नहीं मोल,
कभी तो आइए गांव की ओर।
गीली मिट्टी की सुगंध और पेड़ों की छांव,
कोयल की कूक और कौवे की कांव,
उन्मुक्त गगन और नाचते हुए मोर ,
कभी तो आइए गांव की ओर ।
सरसों के फूल और गेहूं की बालियां,
तितली रंग भरी और मीठी गालियां,
हर ओर है मधुबन, जब होती है भोर,
कभी तो आइए गांव की ओर ।
प्रकृति का श्रृंगार, प्रकृति है चित्रकार
संगीत प्रकृति का, प्रकृति है वास्तुकार
सुबह का सूरज और चंदा चकोर,
कभी तो आइए गांव की ओर ।
नीम की निम कौड़ी और आमों की बौर,
महुआ की मादकता और बरगद की ठौर,
पुरवा की बयार तो कभी पछुआ का शोर,
कभी तो आइए गांव की ओर।
-स्मृति सिंह