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कद्दावर

    -रेनू गुप्ता, जयपुर

    विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2

    मैं सुबह-सवेरे घर का कूड़ा फेंकने कॉलोनी के तनिक बाहर स्थित कचरागाह तक गई ही थी कि बुरी तरह से चौंक गई। किसी नवजात शिशु के रोने की बेहद क्षीण आवाज़ हवा में तैर रही थी।

    मैंने सायास कान लगा कर सुनने की कोशिश की,आवाज़ गंदगीके ढेर से ही आ रही थी। मैंने ध्यान से देखा।कचरे के अंबार के बीचो-बीच एक रोते हुए नन्हे शिशु का मासूम चेहरा मैली-कुचैली गुदड़ी में से झाँक रहा था। 

    घोर आश्चर्य से मैं सिहर उठी। उफ़, इस अबोध को कौन इतनी निर्दयता से यहाँ छोड़ गया? 

    आनन-फ़ानन में मैंने उस गुदड़ी में लिपटे बच्चे को उठाया और फ़ोन से कॉलोनी की मित्रों को इस बारे में बताया।

    पाँच मिनट में ही कूड़े-कर्कट के ढेर के पास मेरे परिचितों का मजमा लग गया।

    तभी किसी ने प्रश्न दागा,“लड़की है या लड़का?”

     मैंने तनिक गुदड़ी हटा कर देखा, वह एक लड़की थी। 

    “अरे कौन छोड़ गया यहाँ इस बच्ची को? किसके पाप की निशानी है यह?”किसी ने कहा।

    “राम! राम! अपनी पेट की जायी को यूँसड़क पर फेंकते दिल नहीं काँपा माँ का?”

    “कलयुग है जी! घोर कलयुग!”

    “अब क्या करना है इसका?”मैंने नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कचरे से सनी गुदड़ी को फ़ुटपाथ पर रखते हुए पूछा।

     मन में अनवरत द्वंद्व चल रहा था,‘कहाँफँस गई इस बेबात के पचड़े में? नाहक सुबह के दस कामों का समय ख़राब हो रहा है।’

    तभी किसी ने कहा, “पुलिस को फ़ोन कर देते हैं, झंझट खत्म। वही सोचेगी, इसका क्या करना है?”

    उधर बच्ची ने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया था, लेकिन इतनी भीड़ में से कोई आगे नहीं आया उसे उठाने।  बच्ची बिलखने लगी। 

     तभी भीड़ चीरती हुई, कॉलोनी में बर्तन, झाड़ू-पोंछा करने वाली पाँच बच्चों की माँ, विधवा रज्जी आगे आई। 

    उसने बच्ची को उठाकर बड़ी ममता से अपने कलेजे से लगाया। 

    फिर बोली, ”कोई पुलिस को बुलाने की जरूरत नहीं है। मैं पालूँगी इस नन्हीसी जान को कानूनन गोद लेकर। जहाँ पाँच पल रहे हैं, वहाँ एक और सही।”

    मुझे लगा, हम सब के सब उसके सामने बौने हो उठे थे।