रेखा बोरा
साहित्यकार, संपादक, विहंगम
विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2
गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगलों में काफल का फल पकने लगते हैं। काफल वहीं फल है… जिस पर लिखा गया है उत्तराखंड का प्रसिद्ध गीत …
बेडू पाको बारामास, ओ नरैण काफल पाको चैत।
मेरी छैला।।
रूणा भूणा दिन आया, ओ नरैण को जा मेरा मैत।
मेरी छैला।।
ऐसा ही एक और गढ़वाली गीत है…
काफल पाको मैन नि चाखो…
जो उत्तराखंड की लोककथा पर आधारित है। यह गीत सुनने में जितना अच्छा है, इसकी कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है।
दरअसल उत्तराखंड में एक लोककथा प्रचलित है कि उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला रहती थी, जिसकी एक छोटी सी बेटी थी। दोनों एक दूसरे का सहारा थे। आमदनी के लिए उस महिला के पास थोड़ी-सी जमीन के अलावा कुछ नहीं था, जिससे बमुश्किल उनका गुजारा चलता था।
गर्मियों में जैसे ही काफल पक जाते, महिला बेहद खुश हो जाती थी। उसे घर चलाने के लिए एक आय का जरिया मिल जाता था। इसलिए वह जंगल से काफल तोड़कर उन्हें बाजार में बेचती, जिससे परिवार का भरण-पोषण हो सके। एक बार महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई, उस वक्त सुबह का समय था और उसे जानवरों के लिए चारा लेने फिर से जंगल जाना था। इसलिए उसने शाम को काफल बाजार में बेचने का मन बनाया और अपनी मासूम बेटी को बुलाकर कहा, ‘मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना, और तब तक नमक पीसकर रखना।
मां की बात मानकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी करती रही। इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन में लालच आया, पर मां वह खुद पर काबू करके बैठे रही। इस बीच धूप से काफल सूख गए। दोपहर में जब उसकी मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी का एक तिहाई भाग कम था। मां ने देखा कि पास में ही उसकी बेटी सो रही है।
सुबह से ही काम पर लगी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया। उसे लगा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं। गुस्से में उसने घास का गट्ठर एक ओर फेंका और सोती हुई बेटी की पीठ पर मुट्ठी से जोरदार प्रहार किया। नींद में होने के कारण छोटी बच्ची अचेत अवस्था में थी और मां का प्रहार उस पर इतना तेज लगा कि वह बेसुध हो गई।
बेटी की हालत बिगड़ते देख मां ने उसे खूब हिलाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। उधर, शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई। जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा गए हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई।
कहा जाता है कि उस दिन के बाद से एक चिड़िया चैत के महीने में ‘काफल पाको मैन नि चाख्यो’ कहती है, जिसका अर्थ है कि काफल पक गए, मैंने नहीं चखे..। फिर एक दूसरी चिड़िया ‘र्पु पुतई र्पु पुर’ गाते हुए उड़ती है। इसका अर्थ है ‘पूरे हैं बेटी, पूरे हैं’..।
ये कहानी जितनी मार्मिक है, उतनी ही उत्तरखंड में काफल की अहमियत को भी बयान करती है।
काफल- छोटा आकार परन्तु गुणों का खज़ाना
काफल एक छोटे आकार का बेरी जैसा फल है, जो गोल और लाल, गुलाबी रंग का होता है और स्वाद मीठा और रसीला होता है। इस फल में कई तरह के औषधीय गुण मौजूद होते हैं। उत्तराखंड में इस फल का इस्तेमाल आयुर्वेद में कई तरह की दवाएं बनाने के लिए किया जाता है.
1.इसमें एंटी-अस्थमा से भरपूर गुण होते हैं, जो अस्थमा से ग्रस्त लोगों को बेहद लाभ पहुंचाता है।
2. इस फल में एंटीऑक्सीडेंट तत्व भरपूर मात्रा में होता है, जो कई तरह की समस्याओं जैसे डायरिया, अल्सर, जलन, सूजन, गले में खराश, अपच, एनीमिया, बुखार आदि को दूर कर सकता है। इसके पेड़ के छाल, फूल, बीज आदि भी बेहद फायदेमंद होते हैं। छाल एंटी-एलर्जिक होती है जिसका प्रयोग किया जाता है। काफल का सेवन पाचन तंत्र को दुरुस्त रखने के लिए भी किया जाता है।
3. काफल के पेड़ की छाल दांतों के दर्द को दूर करने में कारगर है। छाल को दांतों से 2-3 मिनट चबाने से दर्द कम होता है।
4. स्ट्रेस, चिंता के लक्षणों को कंट्रोल करने के लिए भी काफल का सेवन करना फायदेमंद है। इसमें तनाव को कम करने वाले तत्व मौजूद होते हैं, जो मानसिक समस्याएं जैसे अवसाद, चिंता, तनाव आदि के लक्षणों को कम करते हैं।
5. काफल में एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-माइक्रोबियल तत्व होते हैं, जो खांसी, सर्दी-जुकाम की समस्याओं को दूर करने में बेहद कारगर होते हैं. इसकी छाल से बने चूर्ण के सेवन से खांसी, गले में खराश, दर्द आदि को कम किया जा सकता है।
-रेखा बोरा