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मेरी जबानी, गोला की कहानी

    -डॉ. साधना अग्रवाल “साधिका”

    -विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2

    उस घड़ी मुझे लगा कि आसमान चूम लूँ। 

    निज धरा से उस गगन की सारी राह घूम लूँ।

    इस जमीं से आसमां की सारी दूरी नाप लूँ। 

    फेंक के पत्थर को देखूँ और बुलंदी जान लूँ। 

    ये भाव मेरे मन में उस समय जाग्रत हुए जब मैं छोटी काशी काव्य कुंभ की अजस्र धारा में डूबने उतरने में मगन थी। 

    और फिर कपिलश फाउंडेशन की इतनी बड़ी पहल!!!अरे भाई एक रिकार्ड पहले बना चुके हैं वो भी कोई कम नहीं था उस पर अपना ही रिकार्ड तोड़ने की मुहिम। कोई और शायद तोड़ भी न पाता। फिर मेरे मस्तिष्क में किसी शायर की ये पंक्तियाँ आईं- 

    “कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता 

    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। “

    कपिलश ये करके दिखा रहा था। 

    अब यदि ऐसी अनुभूतियाँ होंगी तो कोई भी इन्सान उन स्मृतियों को संजोने में लग जाएगा। मैने भी सोचा इन अनमोल पलों को शब्दों में बाँधने का। तो प्रस्तुत है ‘मेरी जुबानी, गोला की कहानी’। 

    बचपन से ही साहित्यिक गतिविधियों की शौकीन मैं सेवानिवृत्त होने के बाद फुरसत के बिछौने पर बैठ गई। फिर     सोचा क्यों न अपने बचपन के शौक को जी लूँ। और अपने कविता पाठ के शौक के चलते मैं किसी मंच की तलाश में भटक रही थी। मैं अपने मोबाइल फोन के द्वारा कई साहित्यिक समूहों में जुड़ गई थी। अचानक एक संदेश देखा जो कपिलश फाउंडेशन से था। गोला गोकर्णनाथ एक ऐसा नाम जो कभी सुना ही नहीं था। किन्तु मुझे तो किसी भी मंच तक पहुँचना था तो उसका गूगल फार्म भर दिया और दिन गिनने शुरू कर दिए। आखिर जाने का समय आ गया किन्तु अब समस्या ये थी कि कैसे जाया जाए। ऐसी ही उलझन भरी घड़ी में बिटिया गति ने हिम्मत दी। कहा- “मौसी मैं आपको ले चलूँगी।” बस फिर क्या था, जाने की तैयारियाँ कर लीं। 24 सितंबर 2024 की रात को साढ़े दस बजे हम हापुड़ से वोल्वो बस में सवार होकर गोला के लिए निकल पड़े। प्रातःकाल साढ़े पाँच बजे हम गोला में उतर गये। सड़क पर इक्का दुक्का लोग ही थे। एक ई रिक्शा रुकवा कर जब हमने रॉयल लॉन का पता बताया तो वो बोला कि उसे नहीं पता। हल्का अँधेरा था, नयी जगह थी। फोन में फिर से पता देखा। यह स्थान मोहम्मदी रोड पर था। हमारे मुख से मोहम्मदी शब्द सुनते ही बोला-” हाँ, मोहम्मदी रोड पर तो ले चलूँगा आपको। ” हमने सोचा आगे चलकर पूँछ लेंगे। आगे सड़क अभी सुनसान थी, किससे पूँछते। अचानक से नजर पड़ी राॅयल लाॅन पर। ऊपर नाम लिखा था। रिक्शे वाले का पैसा दिया और उतर गये। 

       अब अंदर कैसे जाएँ। राॅयल लाॅन का गेट तो बन्द था। काफी देर तक गेट पर दस्तक देते रहे, कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। फिर फोन किया। दो बार की घंटी तो यूँ ही बज कर समाप्त हो गई। हम बहुत डरे हुए थे। राॅयल लाॅन में भी कार्यक्रम होने के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते थे। एक बार फिर काल किया। इस बार फोन उठा लिया गया तथा हमें वहीं खड़े रहने को कहा गया। कुछ देर बाद दो व्यक्ति वहाँ आए और हमें समीप ही बने एक भवन में ले गये। वहाँ कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर हम जहाँ पहँचे, वहाँ कुछ कमरे हम महिला कवयित्रियों के लिए तैयार किए गए थे। हमने अपने ईश्वर का धन्यवाद किया। 

      हम रात भर के चले हुए थे, थक कर चूर थे। सामान एक ओर रखकर उन गद्दों पर पसर गये। वहाँ दूसरे कक्ष में पहले से ही एक कवयित्री ठहरी हईं थीं अल्पी वार्ष्णेय। उनसे भी थोड़ा परिचय हो गया था। हम थोड़ा तरो-ताजा महसूस कर ही रहे थे कि एक सज्जन चाय तथा बिस्कुट लेकर आ गए। हमने सोचा कि ये यहाँ के मैनेजर होंगे। चाय बहुत बढ़िया थी। घर की बनी हुई थी और उनके आतिथेय में आत्मीयता की एक झलक थी। ये तो बाद में पता चला कि एक महान विद्वान व्यक्तित्व के हाथ से हमें चाय पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये कोई और नहीं गोला के एक सुप्रसिद्ध कवि व मनीषी श्री श्रीकान्त तिवारी कान्त जी थे जिन्होंने थोड़ी देर बाद अपना परिचय हमें दिया और तभी हमें पता चला कि सुबह जो सज्जन उनके साथ आए थे वो कोई और नहीं कपिलश फाउंडेशन के मालिक श्री यतीश शुक्ला जी थे। हम तो इनके कृतज्ञ हो गए। आज जब मैं उन अविस्मरणीय क्षणों के विषय में सोचती हूँ तो स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करती हूँ। 

      सुबह के आठ बजे थे। तिवारी जी हमें कार्यक्रम स्थल पर ले गए जहाँ अभी व्यवस्थाएँ बनाईं जा रहीं थीं। ये इस आयोजन का प्रथम दिवस था। आज ही उद्घाटन होना था। सामने दीवार पर एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी जिसके ऊपर लिखा था-“स्वप्न जो रह गए अधूरे, कपिलश कर रहा है पूरे।” देखकर मन के तार झंकृत हो गए। वहाँ से लौटते समय तिवारी जी के आग्रह पर हम उनके घर गए। दही के साथ जलेबी प्रथम बार खाई थी पर अच्छी लगी। उन्होंने अपनी एक पुस्तक ‘झोंपडी गिरवी पड़ी है’ मुझे सप्रेम भेंट की। हम उनके ऐसे सहृदय  व्यवहार से अभिभूत हुए बिना न रह सके। 

      तैयार होकर साढ़े दस बजे जब हम आयोजन स्थल पर पहँचे तो वहाँ बड़ी गहमा गहमी थी। उत्सव का वातावरण था। हम किसी को नहीं जानते थे तो एक तरफ रखी कुर्सियों पर बैठ गए। उद्घाटन का भव्य आयोजन चल रहा था। गोला शहर की तथा शहर से बाहर की जानी मानी हस्तियों को बुलाया गया था। एक शेख साहब थे जिन्होंने हमें बहुत प्रभावित किया। एक प्रभावशाली व्यक्तित्व और था कपिलश की अध्यक्षा श्रीमती शिप्रा खरे जी का, सौम्य, सुसंस्कृत तथा स्नेहिल। डॉ. स्मिता तिवारी जी से भेंट हुई। उनहोंने हमें पुष्प हार पहना कर स्वागत किया। सब कुछ बहुत ही सुंदर लग रहा था। 

      सामने मंच पर एक टाइम मशीन रखी हुई थी। एक ओर एक बड़ी सुदर्शना सी कन्या बैठी हुई थी जिसके पास एक घंटी थी। मंच के ठीक सामने की कुर्सियों पर कम्प्यूटर ऑपरेटर अपने कार्यों में लगे हुए थे। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ. अनुराधा जी के प्रभावशाली संचालन से हुआ। नियम के अनुसार एक कवि को केवल बीस मिनट ही मिलने थे काव्य पाठ के लिए। जैसे ही बीस मिनट पूरे होते, उधर बैठी लड़की घंटी बजा देती। तब संचालक मंडल मंच को सम्हालते। इन्हें 150 घंटे तक अनवरत काव्य पाठ का विश्व रिकॉर्ड बनाना था। कार्यक्रम के प्रारंभ के बाद बीच में कुछ सैकेंड की भी रुकावट नहीं आनी चाहिए थी। 

      हम बहुत थके हुए थे तो उस रात वहीं रुकने की योजना बना ली थी। 

    नाश्ता व भोजन की व्यवस्था भी बहुत सुचारु रूप से चल रही थी। सबसे अच्छी बात यह थी कि भोजन व्यवस्था के जो इनचार्ज थे वो सभी का व्यक्तिगत तौर पर ध्यान रख रहे थे। भोजन भी सुस्वादु व पोषक था। 

    मेरा नम्बर रात को नौ बजे आया। मैं अभी तक काव्य गोष्ठियों में ही गई थी  तो मंच का अनुभव मेरे लिए नया था।

    जब मैं अपना काव्य पाठ करके आई तो बिटिया गति बोली-“मौसी जी आपका अच्छा था।” सुनकर मन को प्रसन्नता हुई। हम अब भोजन करके अपने कक्ष में आ गए। हमने अपने रात्रि के वस्त्र पहने तथा बिस्तर पर निढाल हो गए। तभी लगा कि बहुत सी चींटियाँ हमारे हाथ पैरों पर रेंग रहीं हैं। बिजली की फुर्ती से उठे, बल्ब जलाया तो देखा कि हजारों चींटियाँ हमारे बिस्तर पर चल रहीं हैं। हम अभी कुछ सोचते कि श्रीमती तिवारी हमसे मिलने आ गईं। उनके साथ एक बालिका भी थी। हमने उन्हें जब चींटियों की बात बताई तो वो बच्ची जाकर लक्ष्मण रेखा ले आई उसने बिस्तर के चारों ओर लक्ष्मण रेखा से रेखाऐं बना दीं। चींटियाँ धीरे धीरे गायब होने लगीं। श्रीमती तिवारी जी की आत्मीयता हमारे अन्तस में तब उतर गई जब उन्होंने हमसे हमसे चाय के लिए पूछा। एक अनजान शहर में रात के साढ़े दस बजे यदि कोई आपकी सुविधा के लिए कोई चिन्ताग्रस्त है तो आज के समय में इससे विलक्षण बात कोई नहीं है। 

    कुछ देर हम यूँ ही बातें करते रहे उनके साथ। ऐसा नहीं लग रहा था कि हम अपने घर से इतनी दूर बैठे हैं। बिल्कुल घर जैसा वातावरण, बिल्कुल परिवार जैसी आत्मीयता। 

    एक बार फिर ईश्वर का धन्यवाद किया। 

      रात के साढ़े ग्यारह बजे जैसे ही हम सोने को तत्पर हुए, एक संभ्रांत सी महिला कवयित्री ने कक्ष में प्रवेश किया। ये थीं मुम्बई से आई हुई श्रीमती अंबिका झा। बहुत ही सुलझे हुए व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं वह। कुछ देर बातें करते रहे। मित्रवत होकर सो गए। सुबह जब सोकर उठे और स्नान आदि के लिए अपने बैग खोले तो देखा बिटिया गति के बैग में रात वाली सारी चींटियाँ आराम फरमा रहीं हैं। असल में उसका बैग एक कोने में रखा था। हम दोनों का हँसते हँसते बुरा हाल था। खैर फिर एक एक वस्तु को थैले से बाहर निकाला। कपड़ों की हर तह में चींटियाँ थीं। उन्हें अलग करने में हमें पूरा एक घंटा लगा। 

      गोला के कार्यक्रम में जो खास बात थी वो ये थी कि नाश्ता व भोजन समयानुसार बहुत ही बढ़िया था। उससे भी अधिक अच्छे थे श्री नानक चंद्र वर्मा जी जिनका आतिथेय हर मेहमान को खास होने की अनुभूति दे रहा था। और ये कितनी बड़ी बात है कि 150 घंटे तक कार्यक्रम को अनवरत चलना था यानि सात दिन, सात रात तक चलते ही रहना था। कमाल की बात ये कि आयोजक मंडल का कोई व्यक्ति कब सोया या सोया ही नहीं ये पता नहीं चल रहा था। हमने तो 36 घंटे तक सभी को वहाँ उपस्थित ही देखा। 

       वह कार्यक्रम का दूसरा दिन था। हमें उस दिन की शाम को वोल्वो से निकलना था। सायंकाल की चाय का समय था। उस दिन सभी कवियों का काव्य पाठ बहुत सुंदर था। हमने शिप्रा जी से कहा कि हमारा प्रमाण पत्र दे दें और उन्होंने दिया भी किन्तु हमसे रुकने का भी आग्रह किया। नियम के अनुसार एक कवि 24 घंटे के बाद दोबारा काव्य पाठ कर सकता है। तो उनकी इच्छा थी कि मैं एक बार और पढ़ूँ। आदरणीय यतीश शुक्ला जी, श्री तिवारी जी, श्री रविसुत शुक्ल जी, श्री बेधड़क जी और बदायूं के कुछ कवियों के अनुरोध को मैं टाल न सकी तथा मैं रुक गई। रात भर हम काव्य पाठ सुनते रहे। सुबह पाँच बजे मेरा नम्बर आया। इस समय हाल में बहुत कम लोग थे किन्तु थे वो अच्छे श्रोता। मुझे मेरी कविता पर तालियाँ व पुष्प हार बहुतायत में मिले। शिप्रा जी ने स्वयं मेरे गले में पुष्प हार पहनाया। मेरे लिए वह गौरव का पल था। काव्य पाठ के बाद सुबह साढ़े छः बजे हम वहाँ से बस द्वारा शाहजहांपुर, वहाँ से रेलमार्ग द्वारा हापुड़ और वहाँ से बस द्वारा हम शाम सात बजे तक खुर्जा पहुँच गए। 

    घर आकर अनुभव हुआ कि कितने रोचक अनुभवों से भरी हुई थी मेरी यह कपिलश की यात्रा। 

    मन की बात- 

    ये संसार एक विशाल सागर है और इस सागर में गोता लगाने पर कभी कभी कोई सच्चा मोती हाथ लग ही जाता है। ऐसा ही एक मोती मेरे हाथ भी लगा, गोला गोकर्णनाथ की धरती पर जो भोले बाबा का स्थान है। 

    गोला की धरती को नमन है। गोला के भोला को नमन है। 

    कपिलश के लिए धन्यवाद के उद्गार-

    धन्यवाद तेरा हे ईश्वर जो तू मुझको मिल जाता है, 

    मेरी हर एक भावना को तू कैसे प्रभु समझ जाता है।

    कब बन जाता तारणहारा कब पतवारें बन जाता है, 

    साथ निभाने को तू मेरा कपिलश बन कर आ जाता है। 

    चाहे धूप चिलचिलाती हो चाहे रात हो गहन अँधेरी, 

    चाहे यात्रा लम्बी हो चाहे हो कंटक भरी घनेरी। 

    तेरा अनुभव हो जाता जब कोई सफर में मिल जाता है, 

    शिप्रा जैसी नदी मिले तो मुझ सा प्राणी तर जाता है। 

    डॉ. साधना अग्रवाल साधिका 

    खुर्जा (बुलंदशहर)

    उत्तर प्रदेश