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मुंशी प्रेमचंद जी की कुर्सी

    डॉ. मुकेश ‘असीमित ‘

    मैं निठल्ला सा मुखपोथी ,मेरा मतलब फेसबुक की दीवारों को आवारा आशिक की तरहा छेड़ रहा था की एक पोस्ट पर नजर पडी ,पोस्ट मेरे और आप सबके प्रिय हिंदी साहित्य के पितामह मुंशी प्रेमचंद को लेकर थी तो स्वाभाविक था अपनी आवारगी को लगाम देकर कुछ कुछ साहित्यिक गंभीरता के लक्षण प्रगट करूँ ,में तुरंत  गोलमाल का रामप्रशाद बन कर उसे पढने लगा. पोस्ट मुंशी प्रेमचंद जी की कुर्सी को लेकर था , मेरा ध्यान कुर्सी से हट ही नहीं रहा था, वैसे भी कुर्सी सभी का मन मोह लेती है, आज कल तो बाजार में ऐसी ऐसी कुर्सी आती है की मन करता है चार कुर्सियां चैम्बर में लगा लू, अपनी दोनों टाँगे (क्या करूँ भगवान ने दो ही दी है ) दो अलग अलग कुर्सियों पर पसार लूँ, ऐसे ही जैसे आज कल के हमारे मूर्धन्य साहित्यकार मनचाही  कुर्सियों पर अपने पैर जमाए रखते  है ,आजकल वो ही सफल  साहित्यकार है जो एक से अधिक  कुर्सीयों पर बैठा है और दूसरी कुर्सियों पर भी  अपने पाँव फैलाए हुए है,पैर भी भगवान् ने दो नहीं इनके तो दस दस पैर दिए हुए है, लेखक ये  ,कथाकार ये ,आलोचक ये, समीक्षक  ये ,प्रकाशक ये, विमोचन कर्ता ये ,सभी कुर्सियां इनके पास ! खैर कुर्सी के साथ लिखा लेख  भी बता देता हूँ – मुंशी प्रेम चंद जी कानपुर आकर धनपत राय-नवाब राय से मुंशी प्रेमचंद  बन गए थे , बिलकुल ठीक विपरीत आजकल हर कोई लेखक मुंशी प्रेमचंद  से धनपत राय नबाब राय बनना चाहता है  ! हिंदी के कथा सम्राट मारवाड़ी इंटर कॉलेज में इसी कुर्सी पर बैठते थे. आज यह ऐतिहासिक धरोहर बन गई है। जिन्होंने प्रेमचंद का साहित्य पढ़ा है, उन्हें मालूम होगा कि कानपुर की किस्सागोई वाली फितरत और बहुरंगी किरदारों ने कथा सम्राट को मजे का मसाला दिया. इसकी महक उनकी रचनाओं में अक्सर मिलती है. न जाने कितने लेख, विचार, कहानियां और उपन्यास उस कुर्सी पर बैठकर ख़याल में आये होंगे और उन्हें पन्नों में उकेरकर  इस दुनिया को भेंट किए होंगे। हिंदी युग का स्वर्णिम काल।

    आज जब हिंदी कथा जगत , पितामह प्रेमचंद जी  को याद कर रहा है, तो इस कुर्सी के दीदार करना भी जरूरी है। प्रेमचंद की कुर्सी जो आज भी सुरक्षित है,  कोई कुत्सित विचारों की  जंग नहीं लगी, वक्त की दीमक चाट नहीं पाई। । कुर्सी के पाए ,हत्थे, सिरहाना ,सीट सब जस की तस !

    देख कर लगता है, आजकल की कुर्सियां कितनी  कमजोर होती हैं। नट-बोल्ट ढीले होते हैं। ढीले नहीं होते तो ढीले करने वाले दिन रात लगे रहते है ! सीटें फट जाती है , हालाँकि प्रेमचंद के फटे जूतों से तो उंगलियाँ बाहर नजर आती है, लेकिन कुर्सी की फटी सीट से लेखक की झुकती कमर और बेपेंदे के लोटे का सा नितम्ब किसी को नजर नहीं आता !  कुर्सियां बनाई ही इस तरह जाती है  की जो कोई उस पर बैठे ,उसे ऐसा  लगे जैसे ये उसी के लिए बनी हो,और उसी के साथ जायेगी !  कुर्सी में पायों पर भी पहिये लगाए जाते हैं ताकि कुर्सी को मनपसंद जगह पर ले जाया  जा सके ,ऐसी जगह जहा उसके विचारों पर स्वमिभक्तों  की भीड़ साष्टांग लोटने लगे , खुद भी अपने विचारों को देश, काल और  परिस्थिती की मांग के अनुसार पलटी मार सके , अब  मानो लेफ्ट विंग के आईडिया आ रहे हों ,विचारों  में कम्युनिस्ट वाद  की झलक हो ,आपके इस कृत्य से  सत्ता को अगर अपनी कुर्सी हिलती नजर आये तो फिर आपकी कुर्सी कौन बचाएगा,  कुर्सी ऐसी की तुरंत  घूमकर  आपके विचारों को भी दांयी तरफ मोड़ सके,  आज कल लेखक को एक ही विधा से जुड़े रहना खतरे से खाली  नहीं है, ये बिलकुल रेलवे विंडो की लाइन की तरह है, आपको पता लगेगा  की आपकी  वाली लाइन लम्बी होती जा  रही है ,खिड़की  तक पहुँचने में  में सालों लग जायेंगे , और  जब तक पहुंचे तब तक शायद साहित्यिक मलाई बंटना  ख़त्म ही हो जाए ! आपको हमेशा दूसरों की थाली में घी नजर आने लगता है ,दूसरी लाइन छोटी नजर आने लगती  है तो  आपको  कुर्सी दूसरी लाइन में लगानी पड़ेगी ! कुर्सी में हत्थों  का क्या काम , पैरों  को टिकाने के लिए फूट रेस्ट का का क्या  काम ,प्रेमचंद जी की कुर्सी में ये थे, क्यों की उनके लिखे  में हाथ भी होते थे ,पैर भी और सर भी , आजकल वही बिकता है जो बेसिर  पैर हो, आपके हाथ छुपे  रहें  ,क्यों की हाथ दिखेंगे तो लोगो को पता चलेगा की हाथ तो आपके है ही नहीं ,ये तो किसी और के हाथ है जो आप के ऊपर वरदहस्त रूप में विराजित है. प्रेमचंद जी की कुर्सी एक ही जगह फिक्स है, घूम नहीं सकती। आजकल कुर्सियां बनाई जाती हैं रिवॉल्विंग ताकि उस पर कभी भी पाला बदला जा सके। सरकार बदले तो भाव बदल जाए। लेखक को कुर्सी घूमती हुई चाहिए जो आज लिखा, कल उससे पलट सके। थ्री सिक्सटी   डिग्री बयान बदल सके। दल बदलते हैं तो  आपके लेखन की भक्ति की दिशा भी बदलनी चाहिए। यह कुर्सी पर बने रहने के लिए जरूरी होता है ।

    कुर्सी सिर्फ लिखने के लिए नहीं कुछ और भी प्रयोजन है । आयोजन, समितियों, अकादमियों की कुर्सी जीवन धन्य कर देती है। लेखक सिर्फ लेखक ही रहे तो प्रकाशकों और  संपादकों  की चापलूसी करता रह जाएगा , प्रकाशकों के घर भरने के अलावा और क्या कर पाएगा। आजकल जितने लेखक है , उतने तो पाठक भी नहीं। अब अपनी खुद की  ही रचनाओं को पढ़ने का समय नहीं, औरों की कहां से पढ़ेंगे। थोड़े दिन में देख लेना, पाठक भी पेड मिलने लगेंगे जैसे एड देखने के पैसे मिलते हैं ना, वैसे ही पढ़ने के भी पैसे मिलेंगे।

    प्रेमचंद जी की कुर्सी से लगाव तो सभी को  है लेकिन कुर्सी सभी अपने ढंग की डिजाइन कर बनाना चाहते हैं। कुर्ता , धोती, टोपी ये सब तो हुबहू प्रेमचंद जी के जैसी पहन लेंगे  ,कोई शर्म नहीं । प्रेमचंद जी ने जितने फटे जूते पहने, उससे ज्यादा फटे में नजर आ सकते हैं, लेकिन कुर्सी अपनी डिजाइन की होनी चाहिए ।

    प्रेमचंद जी जो कुर्सी पर बैठते थे, उसमें गोंद नहीं लगा था, चिपकती नहीं थी। अब कुर्सी पर बैठे और वो चिपके नहीं तो बड़ा खतरा है। कुर्सी खाली होते ही कोई भी बैठने को उतावला रहेगा। कुर्सी चिपकी रहेगी तो कुर्सी जाने का खतरा नहीं। जहां भी जाएंगे, कुर्सी साथ जाएगी। एक खतरा है, कुर्सी की डिज़ाइन चोरी हो गई तो कोई नकली कुर्सी भी ला सकता है और उसे असली बताकर बैठ जाएगा कि ये ही असली है।

    वैसे सरकार से अनुरोध है कि संग्रहालय में कुर्सी पर सुरक्षा बढ़ा दें। कुछ लोग कुर्सी की नकल के लिए उसे वहां से चुरा भी सकते हैं। हर हाल में प्रेमचंद जी बना हुआ देखना है !

    अब कुछ और कस्टम डिजाइन जरूरी है ,जैसे  कुर्सी जो बनेगी उसके पाये लंबे रखेंगे ताकि पैर जमीन तक पहुंचे ही नहीं। साहित्य के रंगते कीड़ों  का कोई भरोसा नहीं, कब कदमों में पहुंचकर रंगते हुए ऊपर चढ़ जाएं और कब कुर्सी हथिया लें कहा नहीं जा सकता । बड़ा धोखा है । साहित्यकार का जीवन भी बड़ा  संघर्षमय है। आधी जिंदगी साहित्य सृजन में लगा दी, आधी से कुछ कम कुर्सी हथियाने में और अब बची हुई कुर्सी बचाने में लगा रहे हैं।

    कुर्सी पर बैठे लेखक की हालत वैसी ही हो जाती है जैसे महंगाई के नीचे दबा आम आदमी। लोग समझते हैं कि लेखक की कुर्सी आरामदायक होती है, लेकिन असल में यह कांटों का ताज है। अगर लेखक ने किसी विशेष विचारधारा का समर्थन कर दिया तो विरोधी विचारधारा वाले उसे कुर्सी से गिराने का पूरा प्रयास करेंगे। और अगर लेखक ने तटस्थ रहकर लिखा, तो सब तरफ से पत्थर बरसाते हैं।

    प्रेमचंद जी की कुर्सी पर बैठने का सपना तो हर लेखक देखता है, लेकिन उसमें बैठने का साहस कम ही लोगों में होता है। आज के लेखक को तो अपनी कुर्सी की इतनी चिंता रहती है कि वह लिखने से ज्यादा उसे संभालने में लगा रहता है। कोई न कोई उसे खींचने की कोशिश करता रहता है। प्रेमचंद जी की कुर्सी की मजबूती का राज शायद यह था कि वे बिना किसी भय के सच्चाई लिखते थे। आजकल का लेखक सच्चाई लिखने से पहले सौ बार सोचता है कि कहीं उसकी कुर्सी न चली जाए। कुर्सी पर लिखी जाने वाली रचनाएं ज्यादा बिकती हैं, क्योंकि पाठकों को भी अब साहित्य में कुर्सी का समावेश  अच्छा लगता है ,उसे अपने पास में ही फर्श पर बैठे किसी लेखक की रचनाएँ पढ़ना तौहीन सा लगता है ,उसकी पाठकीय क्षमता पर लानत ! इस दौर में प्रेमचंद की कुर्सी एक प्रेरणा है, लेकिन आज के लेखक के लिए एक चुनौती भी। प्रेमचंद जी ने अपने लेखन से जो स्थान बनाया, वह आज के लेखक को रिवॉल्विंग कुर्सी पर बैठकर बनाना है। यह दौर ऐसा है जहां हर रोज कुर्सी की परीक्षा होती है और लेखक को यह साबित करना पड़ता है कि वह कुर्सी के लायक है।

    डॉ. मुकेश ‘असीमित

    निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान

    पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ

    दूरभाष नंबर- 9785007828