-रामेश्वर वाढेकर ‘संघर्षशील’
बचपन से मेरा एक ही सपना था कि मुझे सीनियर कॉलेज में सहायक प्राध्यापक बनना है। इसलिए मैं परिवार को छोड़कर कई वर्ष दूर रहा। आर्थिक परिस्थिति बिकट होने के बावजूद भी ! बहुत मेहनत की। नेट,सेट,पी-एच.डी.जैसी परिक्षा उत्तीर्ण की। यानी सहायक प्राध्यापक बनने की योग्यता प्राप्त की। आधा जीवन पढ़ाई में खर्च करके। आज मैं सहायक प्राध्यापक बना हूं किन्तु सी.एच.बी. सहायक प्राध्यापक।
मैं सुबह सात बजे कॉलेज में जाने के लिए निकल पड़ा। घर से जल्द निकलता था क्योंकि जाने के लिए बस थी। कॉलेज भी दूर था। बस छूट गई तो बहुत परेशानी होती थी। मैं बस में बैठने ही वाला था कि उतने में फोन की रिंग बजी। मैंने फोन उठाया तो उधर से आवाज आई, “ यश सर, आपके मां की तबीयत बहुत खराब हुई है। आप जल्द से जल्द गांव आईए।”
विजय की बात सुनकर मैं बहुत डर गया था। अब क्या किया जाए ? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैं कॉलेज के तरफ जाने वाले बस से तुरंत उतर गया। और गांव के तरफ निकल पड़ा।
रात के बारह बजे मैं गांव पहुंचा। सभी ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सिर्फ़ कुत्ते की आवाज सुनाई दे रही थी। मैं घर के पास गया। घर यानी पत्रेका शेड। दरवाजा खटखटाया। थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला। खुलते वक्त दरवाजा बहुत बजा। सामने पिताजी दिखाई दिए। मां चारपाई पर सोई हुई थी। तुरंत मां जोर से बोली, “इतनी रात कौन आया है जी ?”
“यश आया है।” पिताजी ने धीरे स्वर में कहा।
मां झटाक से चारपाई से उठी। चेहरे पर मुस्कान लाई। और कहने लगी, “ यश बेटा इतनी रात में आने की क्या जरूरत थी ? मुझे कुछ नहीं हुआ है। सिर्फ़ खांसी-जुकाम था।” इतना कहकर मां शांत बैठी।
“मां तूने बूखार के संदर्भ में मुझे क्यों नहीं बताया ? खुद को इतना त्रास क्यों देती हो ?” इतना कहते हुए यश रोने लगा।
“बेटा रो मत। मुझे कुछ नहीं होगा। मैंने तुझे नहीं बताया क्योंकि तुझे ज़्यादा छुट्टियां नहीं मिलती हैं। तुझे बताया होता तो तू जरूर आता। ज्य़ादा छूट्टियां लेने से शायद तेरी नौकरी जा सकती है।” इतना कहते हुए मां चारपाई से उठने की कोशिश कर रही थी।
“मां वह नौकरी गई तो मैं दूसरी नौकरी ढूंढ सकता हूं। किन्तु तू तो मुझे दूबारा नहीं मिलेगी।” यश ने भावुक होकर कहा।
“बेटा मैं दूबारा ऐसा नहीं करूंगी। तुझे सब कुछ बताऊंगी। अब तू मुंह धोकर आ। तुने दिन भर कुछ नहीं खाया होगा। मैं कुछ बनाती हूं।” इतना कहते हुए मां चूल्हे के तरफ निकल पड़ी।
“मां मैंने खाना खाया है। कुछ मत बना। तू आराम कर। मुझे नींद आ रही है। मैं सोता हूं।” इतना कहकर यश मां के चारपाई के पास ही लेट गया।
रात के दो बजे थे। नींद नहीं आ रही थी। उसके अनेक कारण थे। भविष्य की चिंता निरंतर थी। खुद के भविष्य की नहीं, बच्चे के भविष्य की। साथ ही मां- बाप की बिकट अवस्था देखकर बहुत दुःख हो रहा था। उन्हें मैं साथ लेकर भी जा नहीं पा रहा था। क्योंकि मैं स्थिर नहीं था। आर्थिक परिस्थिति बिकट थी। तब भी मैंने कई बार मां-बाप से कहा कि आप मेरे साथ चलो। मां हर समय सिर्फ़ इतना ही कहती थी कि सही समय आने के पश्चात आएंगे। वे क्यों नहीं आ रहे थे, मुझे पता था। मन में बहुत दुःख था। किन्तु किसी को साझा भी नहीं कर पा रहा था। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। नींद नहीं आई। मां भी मुझे चारपाई से रात भर देखती रही। उसके मन में बोलने हेतु बहुत था । लेकिन वह कुछ भी बोल नहीं पाई। दोनों करवटें बदलते रहे। रात बित गई।
मैं सुबह जल्द उठा। मां को काम में मदत की। नाश्ता जल्द तैयार हुआ। मैं, मां- पिताजी नाश्ता के लिए साथ में बैठे। हम बातें करते- करते नाश्ता कर रहे थे। कुछ समय के पश्चात मां ने अचानक से कहा, “यश मेरी बहू,पोती अच्छी है ? ”
-“दोनों अच्छी है। तुझसे मिलने के लिए दोनों बैचेन है।”
-“जल्द ही मैं उनसे मिलने आऊंगी।”
-“मां तुझे बुरा तो नहीं लगा।”
-“किस बात का ?”
-“ मैंने तेरी बहू और पोती को साथ में नहीं लाया इसका।”
-“ऐसा कुछ नहीं है। तू किस अवस्था में आया है मुझे पता है। ऐसे कुछ भी विचार दिमाग में मत ला। नाश्ता कर जल्द से।”
-“मां तेरी तबियत बहुत खराब हुई है।मेरी चिंता करना छोड़ दो ना। मैं आनंदी हूं। खुद का ख्याल रखना सीख लो।”
-“रखती हूं। और भी रखूंगी । तू कितने दिन रुकने वाला है ?”
-“आज दिन भर हूं। रात को निकलूंगा।”
-“जो तुझे सही लगे।”
-“मां अब मेरा पेट भरा है। आग्रह मत कर। मैंने बहुत दिनों बाद आपके हाथ का रोटी का चूरमा खाया। मुझे बहुत मजा आया। मैं अब मेरे बचपन के दोस्त विजय से मिलकर आता हूं।”
दोपहर के बारह बजे थे। धूप तेज थी। शरीर से पसीना निकल रहा था। इतने धूप में मैं निकल पड़ा। मोहल्ले के रास्ते पर कोई दिखाई नहीं दे रहा था।सब खेत में गए हुए थे। मैं गांव से तकरीबन पांच किलोमीटर दूर चलते- चलते आया। खेत में विजय का घर दिखाई दिया। घर बहुत बड़ा था। रास्ते से जाते वक्त हर व्यक्ति घर के तरफ देखता ही था इच्छा न होकर भी! क्योंकि घर आकर्षक था। मैं भी घर देखकर आश्चर्य चकित हुआ। कुछ समय के लिए मुझे भी लग रहा था कि मेरा घर भी ऐसा हो। नज़दीक जाकर मैंने बाहर की बेल बजाई। कुछ क्षणों के पश्चात गेट खुला। सामने ही दिखाई दिया विजय। उसने उत्साहपूर्ण भाव से पूछा, “यश कब आया ? घर पर सब ठीक है न।”
“कल ही आया हूं। सब ठीक-ठाक है।” यश ने प्रसन्नतापूर्वक कहा।
-“तू बाहर खड़ा क्यों है ? अंदर आ। हम हॉल में बैठते हैं। बहुत वर्ष के पश्चात मुलाकात हुई है। बहुत बातें करेंगे।”
-“हां, जरूर करेंगे। इसीलिए तो मैं आया हूं।घर बहुत बढ़िया बनाया है तूने।”
-“ऐसा कुछ नहीं। बनाया है साधारण सा। तू तो इससे भी बड़ा बनांयगा। क्योंकि तू प्राध्यापक है। मैं तो एक साधारण कंपनी में हूं।”
-“यह भ्रम है तेरा। तेरा ही नहीं तेरे जैसे अनेक व्यक्ति का। लेकिन सही में मेरी क्या अवस्था है मुझे ही पता है। सही में तू ज़िंदगी में सफल हुआ है। मैं असफल हूं। कोई भी जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभा नहीं पा रहा हूं।”
-“मित्र कोई परेशानी में हो ? बहुत निराश दिख रहे हो। इसके पहले मैंने तुझे कभी इतना निराश नहीं देखा। दिल में जो कुछ दुःख है सब बताओं। मन हलका हो जाएगा।”
-“क्या-क्या बताऊं ? दुःख ही दुःख है मेरे जीवन में। मैं परेशान हूं ज़िंदगी से।”
-“ तुझे जो चाहिए था वह तूने हासिल किया है मेहनत से। सहायक प्राध्यापक बना है तू।तेरी आर्थिक परिस्थिति ठीक ही होगी। तुझे पत्नी भी समझदार मिली है। मानसिक समाधानी जरूर होगा तू। फिर भी तू दुःखी और परेशान क्यों है ? ”
-“ हां, मैं सहायक प्राध्यापक पद पर कार्यरत हूं। किन्तु सी.एच.बी.पर। वर्तमान में कई ऐसे व्यक्ति हैं जो सी.एच.बी.सहायक प्राध्यापक पद पर ही साठ वर्ष तक कार्य कर रहे है। यानी पर्मनंट होने के पहले ही यजबार हो रहे है। इसी का दुःख है मुझे। ”
-“ सी.एच.बी.पद पर। मैं नहीं समझा।”
-“तासिका तत्व पर। वेठबिगार की तरह। एक माह के मिलते है बीस, पच्चीस हजार। वह भी नौ,दस माह के पश्चात।”
-“कितने माह पगार मिलता है ?”
-“पगार नहीं,मानधन। मिलता है छह माह तक। देढ लाख रूपये । किन्तु काम तो वर्ष भर करना पड़ता है अप्रत्यक्ष रूप से।”
-“इसके अलावा और कोई माध्यम से पैसे मिलते है ?”
-“ज़्यादातर कुछ नहीं मिलता। पेपर चेकिंग और गार्डिंग के थोड़े -“दो सेमिस्टर के दस,बारह हजार। उसमें से भी कुछ पैसे डिकास के कुछ व्यक्तियों देने पड़ते हैं।”
-“क्यो ?”
-“पैसे देने के पश्चात ही वे समय पर पेपर देते है चेकिंग के लिए। पैसे नहीं दिए तो वे कहते है कि पेपर तैयार नहीं है। कल आ जाओ। ऐसे ही हर दिन कहते है। जिस दिन पेपर मिलते है उस दिन भूखे पेट रहकर पेपर चेकिंग करने पड़ते है।”
-“परीक्षा के समय गार्डिंग के एक दिन के कितने पैसे मिलते है ?”
-“ एक सौ बारह रूपये। दोपहर को गार्डिंग दिई तो और एक सौ बारह रूपये। यानी कुल मिलाकर दो सौ चौबीस रूपये। लेकिन मुझे कॉलेज में आने हेतु एक सौ अस्सी रूपये लगते है। आने जाने को भी नहीं पुरता। सिर्फ़ इसलिए आता हूं कि अगले वर्ष मेरा कॉलेज में चयन हो। वर्ष भर के मुझे तकरीबन एक लाख साठ हजार रूपये मिलते है।”
-“मानधन छह माह तक मिलता है तो बाकी के छह माह में क्या करते हो ?”
-“कुछ नहीं, भटकता हूं बेरोजगार बनकर। गांव के तरफ भी नहीं जा पाता। लोग प्रश्न पूछेंगे इस डर से।”
-“छह माह के पगार पर परिवार कैसे चलाते हो वर्ष भर? उसमें बच्चों की शिक्षा, मां-बाप की जिम्मेदारी भी तो है।”
-“जीता हूं इच्छा मारकर। खुद भी और परिवार के सदस्य को भी जीने के लिए मजबूर करता हूं।”
-“ हर वर्ष सी.एच.बी.सहायक प्राध्यापक पद पर आपका ही चयन होता है कॉलेज में।”
-“कुछ भी गारंटी नहीं है। कोई सिफारिश लेकर आया तो चयन नहीं होता। सी.एच.बी. सहायक प्राध्यापक हेतु मंत्री के फोन,पत्र तक आते है।”
-“कॉलेज में आपके साथ सम्मान जनक बर्ताव होता है पर्मनंट प्राध्यापक,अन्य कर्मचारी के माध्यम से।”
-“ मेरे कॉलेज में सी.एच.बी. सहायक प्राध्यापक के साथ अच्छा बर्ताव किया जाता है। किन्तु ज़्यादातर कॉलेज में नहीं। सी.एच.बी. सहायक प्राध्यापक को कम समझा जाता है। घर के नौकर की तरह वागणूक दिई जाती है।”
-“वे शिक्षित होकर भी विरोध क्यों नहीं करते ?”
-“ उनकी मजबूरी है। उसी का फायदा यह व्यवस्था उठा रही है। उन्होंने विरोध किया तो अगले वर्ष उनका सी.एच.बी.सहायक प्राध्यापक पद का पत्ता कट किया जाता है। वे दूसरा काम भी नहीं कर पाते,समाज के डर से। मुझे भी बहुत चिंता सताती है।किन्तु पत्नी समझदार मिली है। हर परिस्थिति में साथ देती है। इसलिए मैं खुशी से जी पा रहा हूं। लेकिन कभी कभार मज़ाक में पत्नी कहती है कि आप बेरोजगार हो। आपके कारण मुझे और मेरे बच्चे को मन मारकर जीना पड़ रहा है। यह सुनकर बहुत बुरा लगता है। मैं छात्रों के जीवन में रोशनी तो ला रहा हूं लेकिन मेरे ज़िंदगी में अंधार ही है।”
-“तू हार मत। बदलाव जरूर होगा।”
-“मैं हार कभी नहीं मानूंगा। अंत तक संघर्ष करता रहूंगा व्यवस्था से। भले ही मेरी ज़िंदगी बर्बाद हुई है इसका मुझे ज़्यादा अफ़सोस नहीं है। किन्तु आगे चलकर सहायक प्राध्यापक बनने वाले व्यक्ति की ज़िंदगी मेरी जैसी न हो। यही मेरी इच्छा है। अब मैं चलता हूं। रात को शहर के तरफ निकलना है। अब मेरा मन हलका हुआ है। तूने समय पर फोन किया, इसलिए मैं आ सका। आपका अहसास मैं कभी नहीं भूलूंगा।”
-“यह मेरा दायित्व था। कभी भी किसी भी चीज की जरूरत पड़ी तो मुझे याद करना। कोई संकोच मत रखना। खुद का ख्याल रखना।”
मैं रास्ते से निकल पड़ा घर की ओर। दिन के छह बजे थे। खेत से अनेक लोग घर वापिस आ रहे थे। मैं अनेक व्यक्तियों को बातचीत करते-करते घर कब पहुंचा पता नहीं चला। मां घर के बाहर ही बैठी थी। मुझे देखकर कहने लगी, “यश आज की रात रूक जा। सुबह निकल जा। अभी निकलने से तेरी बहुत परेशानी होगी।”
“मां मुझे रात को ही निकलना पड़ेगा। तभी मैं सुबह कॉलेज में जा सकूंगा।” यश ने गंभीरता से कहा।
“ठीक है बेटा। अब हमरी चिंता करना छोड़ दो। हम मजे में हैं।” मां ने चेहरे पर मुस्कान लाकर कहा।
“मां तू ही मेरी चिंता मत कर। मैं जल्द से पर्मनंट होने वाला हूं। पैसें भरने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। क्योंकि अनेक संघटना सहायक प्राध्यापक भर्ती आयोग के माध्यम से करने की मॉंग कर रही हैं। इस कारण मेरा चयन निश्चित है। आपका सपना मैं जरूर पूर्ण करूंगा।” यश ने मां को धीर देते हुए कहा।
“मुझे पता है बेटा तू मंजिल हासिल करने तक नहीं रूकेगा।संभाल कर जा। घर पहुंचे के पश्चात फोन करना।” मां मन में ही रोते हुए बोली रही थी।
“हां, फोन करूंगा।” यश ने भावुक होकर मां से कहा।
मैं निकल पड़ा। मन में बहुत दुःख था। किन्तु मां के सामने व्यक्त नहीं कर सका। घर से दूर आने के पश्चात बहुत रो पड़ा। दिल को हल्का किया। और संघर्ष के रास्ते पर निकल पड़ा।
रामेश्वर वाढेकर ‘संघर्षशील’
संप्रति:- सहायक प्राध्यापक
ईमेल:-rvadhekar@gmail.com
पत्राचार पता:- सहायक प्राध्यापक,रामेश्वर वाढेकर, ’संघर्षशील’ हिंदी विभाग,श्री आसारामजी भांडवलदार कला,वाणिज्य एवं विज्ञान महाविद्यालय, देवगांव रंगारी,
तहसील -कन्नड, जिला-छत्रपति संभाजी नगर, महाराष्ट्र,
पिन -431115
चलभाष्-9022561824