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ये जिंदगी भी बस

    स्मृति सिंह, असि. प्रोफ़ेसर

    आर्य कन्या महाविद्यालय, हरदोई

    विहंगम, अप्रैल-मई 2024, वर्ष-1 अंक-2

    ये जिंदगी भी बस, बस सी हो गई है।

    खड़खड़ाती, हिचकोले खाती,

    तो कभी धकियाती सी गई है,

    शर्तों पर अड़ी बस चलती ही गई है,

    कभी बिगड़ कर संवरी तो कभी बिगड़ती ही गई है,

          ये  जिंदगी भी बस , बस सी हो गई है।

    कभी पूरब की डगर तो कभी पश्चिम का सफर,

    पाला छुआ दक्षिण तो कभी घूमी उत्तर,

    सब को पहुंचाने की होड़ में कभी तितर तो कभी बितर,

    कभी इंजन से धुआं तो कभी  पंक्चर सी हो गई है,

               ये जिन्दगी भी बस, बस सी हो गई है।

    कभी मंजिल करीब तो कभी लंबा सफर,

    जाने किस तलाश में इस शहर से उस शहर,

    संग ढेरों हमसफर, आभासी हैं सब मगर,

    रूहे सुकूं अब दूरे नजर हो गई है,

             ये जिन्दगी भी बस, बस सी हो गई है।

    जो मंजिल पे खड़ी तो राह की फिकर,

    जो चल पड़ी तो फिर मंजिल पे नज़र,

    भीड़ से भरी पर अकेले का कहर,

    कभी पहला गियर तो कभी चौथा गियर,

    कभी ओवर टेक तो कभी पिछड़ती सी गई है,

           ये जिन्दगी भी बस, बस सी हो गई है।